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मैन॑मग्ने॒ वि द॑हो॒ माभि शो॑चो॒ मास्य॒ त्वचं॑ चिक्षिपो॒ मा शरी॑रम् । य॒दा शृ॒तं कृ॒णवो॑ जातवे॒दोऽथे॑मेनं॒ प्र हि॑णुतात्पि॒तृभ्य॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mainam agne vi daho mābhi śoco māsya tvacaṁ cikṣipo mā śarīram | yadā śṛtaṁ kṛṇavo jātavedo them enam pra hiṇutāt pitṛbhyaḥ ||

पद पाठ

मा । ए॒न॒म् । अ॒ग्ने॒ । वि । द॒हः॒ । मा । अ॒भि । शो॒चः॒ । मा । अ॒स्य॒ । त्वच॑म् । चि॒क्षि॒पः॒ । मा । शरी॑रम् । य॒दा । शृ॒तम् । कृ॒णवः॑ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । अथ॑ । ई॒म् । ए॒न॒म् । प्र । हि॒णु॒ता॒त् । पि॒तृऽभ्यः॑ ॥ १०.१६.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:16» मन्त्र:1 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:20» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सम्पूर्ण सूक्त का देवता अग्नि है। देहान्त हो जाने पर कृत्रिम और सर्वत्र सिद्ध अग्नि शव का किस प्रकार छेदन-भेदन, विभाग करती है तथा अजन्मा जीवात्मा को पुनर्देह धारण करने के लिये योग्य बनाती है एवं अग्निसंस्कार का औषधतुल्य वर्णन, शवाग्नि परिणाम और उसका घृतादि आहुति से शवदहन, गन्धदोषनिवारण द्वारा उपचार, शवाग्नि से दग्ध देशभूमि की प्रतिक्रिया, उसका पुनः पूर्व के तुल्य बना देना आदि-आदि प्रतीकारयोग्य बातों का वर्णन है। मनुष्य जिन पर ध्यान न देकर और तदनुसार आचरण न करके शवदहन आदि से जनित हानियों के अपराध से नहीं छूट सकता।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने-एनं मा विदहः-मा अभिशोचः अस्य त्वचं मा चिक्षिपः-मा शरीरम्) अग्नि मृतदेह को विदग्ध अधपका न करे, न शव से अलग ही इधर-उधर जलकर अग्नि रह जावे और न इसके त्वचा या शरीर को फेंके। वास्तव में प्रेत को इस प्रकार जलावे कि (जातवेदः-यत्-ईम्-एनं शृतं कृण्वः-अथ पितृभ्यः प्रहिणुतात्) अग्नि जब इस मृत शरीर को पका दे, तो फिर इस मृत शरीर को सूर्यरश्मियों के प्रति पहुँचा दे ॥१॥
भावार्थभाषाः - शवदहन के लिये इतना इन्धन होना चाहिये कि जिससे शव कच्चा न रह जावे और बहुत इन्धन होने पर भी अग्नि इधर-उधर चारों तरफ जलकर ही न रह जावे, इसके लिये ठोस इन्धन का प्रयोग करना चाहिये तथा अङ्ग-अङ्ग चटक-चटक कर इधर-उधर न उड़ जावें या गिर जावें, ऐसे न चटकानेवाले इन्धन से शव को जलाना चाहिये, जिससे अग्नि के द्वारा शव सूक्ष्म होकर सूर्यकिरणों में प्राप्त हो सके ॥१॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने-एनं मा विदहः-मा-अभिशोचः-अस्य त्वचं मा चिक्षिपः मा शरीरम्) अग्नेऽयमग्निरेनं मृतदेहं मा विदहः न विदहेद् विदग्धमर्द्धपक्वं न कुर्यात् ‘सर्वत्र पुरुषव्यत्ययः’ माभिशोचः-नाभिज्वलेत्प्रेतं विहायेतस्तत एव न ज्वलेत् “शोचतिर्ज्वलतिकर्मा” [नि०१।१७] अस्य प्रेतस्य त्वचं मा चिक्षिपः-क्षिपेत् शरीरञ्च न क्षिपेत्। वस्तुतस्तु प्रेतमेवं दहेद्यत् (जातवेदः यत्-ईम्-एनम्-शृतं कृण्वः-अथ पितृभ्यः प्रहिणुतात्) अग्निर्यदैवेनं मृतदेहं शृतं पक्वं कृण्वः कुर्यादथानन्तरं तदैव पितृभ्यः सूर्यरश्मिभ्यः प्रहिणोतु प्रेरयेत् ॥१॥