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अरा॑यि॒ काणे॒ विक॑टे गि॒रिं ग॑च्छ सदान्वे । शि॒रिम्बि॑ठस्य॒ सत्व॑भि॒स्तेभि॑ष्ट्वा चातयामसि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

arāyi kāṇe vikaṭe giriṁ gaccha sadānve | śirimbiṭhasya satvabhis tebhiṣ ṭvā cātayāmasi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अरा॑यि । काणे॑ । विऽक॑टे । गि॒रिम् । ग॒च्छ॒ । स॒दा॒न्वे॒ । शि॒रिम्बि॑ठस्य । सत्व॑ऽभिः । तेभिः॑ । त्वा॒ । चा॒त॒या॒म॒सि॒ ॥ १०.१५५.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:155» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:13» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में दुर्भिक्ष विपत्ति का वर्णन, उसका परिणाम हाहाकारादि, उसके दूर करने के उपाय, किसी प्रकार से वर्षा करना, अन्य देश से यन्त्रचालित नौका द्वारा अन्न लाना आदि विषय हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अरायि) न देनेवाली दुर्भिक्षरूप दरिद्रता देवी ! तू किसी विद्वान् के लिए भी भिक्षा नहीं देती है, (सदान्वे) सदा शब्द करनवाली हाहाकार शब्द करनेवाली परस्पर मारकाट करनेवाली (काणे) एकदृष्टिवाली सम्पन्न जनों को ही देखनेवाली असम्पन्न को नहीं, ऐसी (विकटे) विकलगतिवाली (त्वं गिरिं गच्छ) तू पर्वत को जा नगर को त्याग या मेघ को प्राप्त कर, उसे मार, नीचे गिरा, यह आलङ्कारिक कथन है (शिरिम्बिठस्य) अन्तरिक्ष में रहनेवाले मेघ (सत्वभिः-त्वा चातयामसि) यज्ञ द्वारा सूक्ष्म तत्त्वों को हम नष्ट करते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - दुर्भिक्ष लोगों को खाना न देनेवाली एक आपत्ति है, जिसमें विद्वान् को भी भोजन नहीं मिलता, जनता में हाहाकार करानेवाली है, केवल सम्पन्न लोग ही खा पी सकते हैं, सामान्य जन नहीं, उसे होम के सूक्ष्म तत्त्वों से मेघ को बरसा कर मिटाना चाहिए ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अदानवृत्ति की भयंकरता

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अरायि) = हे न दान देने की वृत्ति ! (काणे) = तू काणी हैं। एक ही ओर देखनेवाली है । तू अपने व्यक्तित्व को ही देखती है, समाज को नहीं देखती। समाज की उपेक्षा में अन्ततः व्यक्ति के रक्षण का सम्भव नहीं । समाज ही तो व्यक्ति का रक्षण करती है । परन्तु यह अदानवृत्ति केवल अपना पेट भरना जानती है, समाज को कार्यों के संचालन के लिये यह कुछ नहीं दे पाती । अन्त में यह (विकटे) = भयंकर स्थिति को पैदा करनेवाली है। परस्पर असम्बद्ध व्यक्ति मात्स्य न्याय से एक दूसरे को खा-पीकर समाप्त कर देते हैं। (सदान्वे) = इस प्रकार यह अदानवृत्ति सदा आक्रोश को करानेवाली होती है। समाज के असंगति होने पर चोरियाँ, डाके व कतल ही होते रहते हैं और चीखना-चिल्लाना मचा रहता है। सो हे अदानवृत्ति ! तू (गिरिं गच्छ) = पहाड़ पर जा, मनुष्यों से न वसने योग्य स्थान पर जा । अर्थात् हमारे से दूर हो। [२] (शिरिम्बिठस्य) = हृदयान्तरिक्ष में वासनाओं को विनष्ट करनेवाले के (तेभिः सत्वभिः) = उन आन्तरिक शक्तियों से [strength, cowrage] (त्वा चातयामसि) = तुझे हम विनष्ट करते हैं। वासनामय जीवन में दानवृत्ति नहीं पनपती । वासनाओं के विनष्ट होने पर इस शिरिम्बिठ में वह सात्त्विकभाव जागता है जिससे यह दान दे पाता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - अदान की वृत्ति केवल व्यक्ति को देखने के कारण अन्ततः भयंकर परिणामों को पैदा करनेवाली है। हम वासनाओं से ऊपर उठकर सात्त्विकभाव के जागरण से अदान की वृत्ति को दूर भगानेवाले हों ।
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ब्रह्ममुनि

अत्र सूक्ते दुर्भिक्षविपत्तेर्वर्णनं तत्परिणामो हाहाकारादिस्तद्दूरी-करणोपायाश्च प्रदर्श्यन्ते, मुख्योपायस्तु कथञ्चिदेव मेघवर्षणं कार्यं तथान्यदेशतो यान्त्रिकनौकयान्नानयनमिति।

पदार्थान्वयभाषाः - (अरायि सदान्वे) हे अरायिनि दुर्भिक्षरूपं दरिद्रते ! त्वं कस्मैचित् विदुषेऽपि भिक्षां न ददासि तस्मात्, हे अदात्रि ! सदानोनुवे शब्दकारिके हाहाकारशब्दकारिके “सदानोनुवे सदाशब्दकारिके” [निरु० ६।३०] सदा शब्दोपपदात् णु शब्दे यङ् लुगन्तस्याचि ‘नोनुव’ इत्यस्य न्वभावः, यद्वाऽभ्यासाभावो धातोरुवङ्भावश्च, तथा दान्वेन सह सदान्वा स्त्रिया सम्बुद्धौ सदान्वे “दोऽवखण्डने” [भ्वादि०] ततो वन् औणादिकः, सखण्डने परस्परखण्डनकारिणे (काणे) एकदृष्टिके सम्पन्नान् पश्यति नासम्पन्नान् तथाभूते (विकटे) विकलगतिके ! “कटी गतौ” [भ्वादि०] (त्वं गिरिं गच्छ) गिरिं पर्वतं गच्छ नगरं त्यज यद्वा मेघं गच्छ तमेव मारय ताडय नीचैः पातय ‘इत्यालङ्कारिकं कथनम्’ (शिरिम्बिठस्य) अन्तरिक्षे शीर्णशीलस्य मेघस्य “शिरिम्बिठो मेघः शीर्यते विठे विठमन्तरिक्षम्” [निरु० ६।३०] ‘शिरोमुम्भावश्छान्दसः’ (सत्वभिः-त्वा चातयामसि) यज्ञेन निपातितजल-सत्वैस्त्वां नाशयामः ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Stingy deprivation, famine and misfortune, distorted in vision, crooked of character, always whining and protesting, get away to naught. We scare you away by those superior forces of profuse rains of the cloud on mountains where you too may go.