पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) अग्रणेता परमात्मा (अत्रिम्) काम, क्रोध, लोभ दोषत्रय से रहित विद्वान् को या वाणी को (भरद्वाजम्) अमृतान्न को धारण करनेवाले जीवन्मुक्त को या मन को (गविष्ठिरम्) स्तुति में स्थिर-स्तुतिपरायण विद्वान् को या श्रोत्र को (कण्वम्) सूक्ष्मदर्शी विद्वान् को या नेत्र को (त्रसदस्युम्) धारणीय परमात्मानन्ददर्शी विद्वान् को या बुद्धितत्त्व को (नः) हमारे इन सबकी (प्र आवत्) प्रकृष्टरूप से रक्षा करता है (आहवे) स्तुतिप्रसङ्ग में (पुरोहितः-वसिष्ठः) पूर्व से स्थित विद्यागुणों में अत्यन्त बसनेवाला उपासक (अग्निं हवते) परमात्मा की उपासना करता है (मृळीकाय पुरोहितः) सुख के लिये पुरोहित प्रार्थना करता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा काम, क्रोध, लोभ से रहित जीवन्मुक्त स्तुतिपरायण सूक्ष्मदर्शी धारण करने योग्य परमात्मानन्द के अनुभवी विद्वानों की तथा हमारे वाणी, मन, श्रोत्र, नेत्र और बुद्धि की रक्षा करता है, हमारे उपासक होने पर उपासक परमात्मा में अधिक बसा हुआ होता है तथा सुख के लिए परमात्मा की प्रार्थना करता है, वह उसे स्वीकार करता है ॥५॥