उदी॑रता॒मव॑र॒ उत्परा॑स॒ उन्म॑ध्य॒माः पि॒तर॑: सो॒म्यास॑: । असुं॒ य ई॒युर॑वृ॒का ऋ॑त॒ज्ञास्ते नो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु ॥
ud īratām avara ut parāsa un madhyamāḥ pitaraḥ somyāsaḥ | asuṁ ya īyur avṛkā ṛtajñās te no vantu pitaro haveṣu ||
उत् । ई॒र॒ता॒म् । अव॑रे । उत् । परा॑सः । उत् । म॒ध्य॒माः । पि॒तरः॑ । सो॒म्यासः॑ । असु॑म् । ये । ई॒युः । अ॒वृ॒काः । ऋ॒त॒ऽज्ञाः । ते । नः॒ । अ॒व॒न्तु॒ । पि॒तरः॑ । हवे॑षु ॥ १०.१५.१
ब्रह्ममुनि
इस सूक्त के प्रथम मन्त्र की व्याख्या निरुक्त में की गई है, जो नीचे मन्त्रभाष्य में उद्धृत है। उसमें निरुक्तकार ने आधिदैविक विषय को दर्शाया है। तथा ‘तस्मान्माध्यमिकान् पितॄन् मन्यन्ते’ इस निरुक्तवचन से भी विशेष स्पष्टीकरण हो जाता है। सम्पूर्ण सूक्त के देवता पितर हैं और इसमें मुख्यरूपेण यज्ञप्रक्रिया का विधान है, जिसमें दो प्रकार के पितर उपयुक्त होते हैं। एक जड़ पितर सूर्य की रश्मियाँ, दूसरे चेतन पितर ज्ञानी लोग। लोकप्रत्यक्ष भी यही है। यज्ञ का उत्तम उपयोग बिना सूर्यकिरणों और ज्ञानी पुरुषों के नहीं हो सकता, अत एव सूर्योदय के पश्चात् से सूर्यास्त से पूर्व-पूर्व यज्ञ करने का याज्ञिक सिद्धान्त है तथा ब्रह्मा, अध्वर्यु, उद्गाता, होता आदि ज्ञानी जनों के द्वारा यज्ञ करने का आदेश भी है। अत एव इस सूक्त में संक्षेप से यज्ञप्रक्रियाविज्ञान है। साथ-साथ पितृपरिचय, ज्ञानजनों का यज्ञ में कर्तव्य और सूर्यरश्मियों का उपयोगविज्ञान दर्शाया है। यज्ञ के तीन सवन, पृथिवीभ्रमण से अहोरात्रवृत में सूर्यरश्मियों के मुख्यस्थान या केन्द्र, यज्ञ के योग से किरणों का पोषक और बलदायक बनना, बुद्धि का विकसित करना, उदित, तृप्त और शान्त रश्मियों का वर्तन, उत्तरायण और दक्षिणायन में सूर्यरश्मियों का यज्ञ में लाभ और यज्ञाहुति का रश्मियों द्वारा प्रसार, ज्ञानी जनों के द्वारा यज्ञ का सेवन और उनका सत्कार, निज सन्देहों या प्रश्नों का उनसे समाधान तथा उपदेश प्राप्त करना आदि-आदि उपयोगी बातों का वर्णन है।