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श्रु॒धी हव॑मिन्द्र शूर॒ पृथ्या॑ उ॒त स्त॑वसे वे॒न्यस्या॒र्कैः । आ यस्ते॒ योनिं॑ घृ॒तव॑न्त॒मस्वा॑रू॒र्मिर्न निम्नैर्द्र॑वयन्त॒ वक्वा॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śrudhī havam indra śūra pṛthyā uta stavase venyasyārkaiḥ | ā yas te yoniṁ ghṛtavantam asvār ūrmir na nimnair dravayanta vakvāḥ ||

पद पाठ

श्रु॒धि । हव॑म् । इ॒न्द्र॒ । शू॒र॒ । पृथ्याः॑ । उ॒त । स्त॒व॒ते॒ । वे॒न्यस्य॑ । अ॒र्कैः । आ । यः । ते॒ । योनि॑म् । घृ॒तऽव॑न्तम् । अस्वाः॑ । ऊ॒र्मिः । न । नि॒म्नैः । द्र॒व॒य॒न्त॒ । वक्वाः॑ ॥ १०.१४८.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:148» मन्त्र:5 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:6» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (शूर इन्द्र) हे पराक्रमी परमेश्वर ! (पृथ्याः) प्रथित-फैली हुई प्राणी प्रजा के (हवम्) आह्वान को (श्रुधि) सुनता है (वैन्यस्य) कामना करने के योग्य स्तोता के (अर्कैः) अर्चनीय मन्त्रों से (स्तवसे) तू स्तुत किया जाता है (यः-ते) जो तेरे (घृतवन्तम्) तेजस्वी (योनिम्) मिश्रण करने योग्य पद स्वरूप को (आ-अस्वाः) भलीभाँति स्तुति करता है, उसके भी वचन को सुन (वक्वाः) जो गुणों के वक्ता हैं, वे  (निम्नैः) नम्र वचनों से (उर्मिः-न) जलप्रवाहों के समान (द्रवयन्त) तेरे प्रति दौड़ते हैं-द्रवित होते हैं, उनके वचनों को भी सुन ॥५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा समस्त फैली हुए हुई प्रजा के प्रार्थनावचनों को सुनता है और वेदमन्त्रों से जो उसकी स्तुति करता है, उसकी वह विशेषरूप से प्रार्थना स्वीकार करता है, उसके तेजस्वी स्वरूप को जो ध्याया करता है, उसकी भी प्रार्थना सुनता है। गुणों के वक्ता या गायक-जनों के नम्र स्तुतिवचनों द्वारा उसकी और जल की भाँति दौड़ते हैं, उनकी भी स्तुति को सुनता है ॥५॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (शूर इन्द्र) हे पराक्रमिन् ! परमेश्वर ! (पृथ्याः-हवं श्रुधि) त्वं प्रथितायाः प्राणिप्रजायाः-आह्वानं शृणोषि ‘लडर्थे लोट् व्यत्ययेन’ (उत) अपि च (वेन्यस्य-अर्कैः स्तवसे) कमितुं योग्यस्य स्तोतुः “वेन्यस्य कमितुं योग्यस्य” [ऋ० २।२४।१० दयानन्दः] अर्चनैर्मन्त्रैः स्तूयसे ‘कर्मणि कर्तृ-प्रत्ययो व्यत्ययेन’ (यः-ते घृतवन्तं योनिम्-आ-अस्वाः) यस्तव तेजस्विनम् “तेजो घृतम्” [काठ० १०।१] मिश्रणयोनिं पदं स्वरूपं समन्तात् शब्दयति स्तौति “स्वृ शब्दे” तस्यापि शृणु तथा (वक्वाः-निम्नैः-ऊर्मिः न द्रवयन्त) ये वक्तारो गुणवक्तारः “वच धातोः” “अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते” [अष्टा० ३।२।७५] ‘इति वनिप् प्रत्ययः’ नम्रवचनैर्जलप्रवाहः-इव त्वामभिद्रवन्ति तेषां वचनानि खल्वपि शृणु ॥५॥