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यदु॒द्वतो॑ नि॒वतो॒ यासि॒ बप्स॒त्पृथ॑गेषि प्रग॒र्धिनी॑व॒ सेना॑ । य॒दा ते॒ वातो॑ अनु॒वाति॑ शो॒चिर्वप्ते॑व॒ श्मश्रु॑ वपसि॒ प्र भूम॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad udvato nivato yāsi bapsat pṛthag eṣi pragardhinīva senā | yadā te vāto anuvāti śocir vapteva śmaśru vapasi pra bhūma ||

पद पाठ

यत् । उ॒त्ऽवतः॑ । नि॒ऽवतः॑ । या॒सि॒ । बप्स॑त् । पृथ॑क् । ए॒षि॒ । प्र॒ग॒र्धिनी॑ऽइव । सेना॑ । य॒दा । ते॒ । वातः॑ । अ॒नु॒ऽवाति॑ । शो॒चिः । वप्ता॑ऽइव । श्मश्रु॑ । व॒प॒सि॒ । प्र । भूम॑ ॥ १०.१४२.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:142» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:30» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उद्वतः-निवतः) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! तू ऊँचों-नीचों को (बप्सत्) प्रकाशित करता हुआ प्रकट करता हुआ (यासि) सर्वत्र व्याप्त है (प्रगर्धिनी सेना-इव) युद्ध की आकाङ्क्षा रखती सेना की भाँति (पृथक्-एषि) पृथक्-पृथक् स्वाधीन करता हुआ जाता है (यदा ते वातः) जब तेरा उपासक आत्मा (ते शोचिः-अनुवाति) तेरी ज्ञानदीप्ति का अनुसरण करता है-अनुभव करता है (वप्ता-इव-श्मश्रु) नाई जैसे दाढ़ी, मूछ, केशों का छेदन करता है-काटता है, उसी भाँति तू उपासक आत्मा के (भूम प्र-वपसि) बहुत अज्ञानों को काटता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा अपने प्रकाश से ऊँचों-नीचों को प्रकाशित करता हुआ संसार में व्याप्त है, युद्ध की आकाङ्क्षा करती हुई सेना की भाँति व्याप्त हुआ पृथक्-पृथक् सबको स्वाधीन करता है, तो उसके अज्ञानों को नाई के समान छिन्न-भिन्न कर देता है ॥४॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उद्वतः-निवतः-बप्सत्) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! त्वम् उच्चान् नीचान् प्रकाशयन्-प्रकटयन् च सर्वत्र (यासि) गच्छसि व्याप्नोषि (प्रगर्धिनी-सेना-इव) प्रकाङ्क्षिणी सेनेव (पृथक्-एषि) पृथक् पृथक् स्वाधीनं कुर्वन् गच्छसि (यदा ते वातः) यदा खलु तवोपासको गन्ताऽऽत्मा “वातः प्राणस्तद्वानात्मा” [काठ० ९।१३] (ते शोचिः अनुवाति) तव दीप्तिमनुवाति ज्ञानदीप्तिमनुसरति अनुभवति (वप्ता-इव श्मश्रु) यथा श्मश्रु केशान् छिनत्ति तद्वत् उपासकस्यात्मनः (भूम प्र-वपसि) बहूनि खल्वज्ञानानि प्रकर्तयसि नाशयसि ॥४॥