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प्र॒वत्ते॑ अग्ने॒ जनि॑मा पितूय॒तः सा॒चीव॒ विश्वा॒ भुव॑ना॒ न्यृ॑ञ्जसे । प्र सप्त॑य॒: प्र स॑निषन्त नो॒ धिय॑: पु॒रश्च॑रन्ति पशु॒पा इ॑व॒ त्मना॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pravat te agne janimā pitūyataḥ sācīva viśvā bhuvanā ny ṛñjase | pra saptayaḥ pra saniṣanta no dhiyaḥ puraś caranti paśupā iva tmanā ||

पद पाठ

प्र॒ऽवत् । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । जनि॑म । पि॒तु॒ऽय॒तः । सा॒चीऽइ॑व । विश्वा॑ । भुव॑ना । नि । ऋ॒ञ्ज॒से॒ । प्र । सप्त॑यः । प्र । स॒नि॒ष॒न्त॒ । नः॒ । धियः॑ । पु॒रः । च॒र॒न्ति॒ । प॒शु॒ऽपाःऽइ॑व । त्मना॑ ॥ १०.१४२.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:142» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:30» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! (पितूयतः) जीवात्मा के अन्न को चाहते हुए का (ते जनिम-प्रवत्) तेरा साक्षात्कार बहुत श्रेष्ठ है (साची-इव) सङ्गी साथी के समान (विश्वा भुवनानि) सब भूतों को (नि-ऋञ्जसे) योग्य सम्पादित करता है (नः-धियः) हमारी स्तुतियाँ वाणियाँ (सप्तयः) परिचरण करती हुई या तुझे स्पर्श करती हुई (प्र प्र सनिषन्त) प्रकृष्ट रूप में सेवन करती हैं (त्मना पुरः-चरन्ति) आत्मभाव से प्रेरित हुए तेरे सम्मुख विचरते हैं (पशुपाः-इव) जैसे पशु के सम्मुख पशुपालक विचरते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा का साक्षात्कार साथी के समान है योग्य बनाने के लिए, मनुष्यों की स्तुतियाँ उसे घेर लेती हैं, आत्मभाव से प्रेरित की हुई उसके सम्मुख वर्तमान रहती हैं, पशुपालकों की भाँति जैसे पशुपालक पशुओं के सामने रहते हैं ॥२॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! (पितूयतः) जीवात्मनोऽन्नमिच्छतः “छन्दसि परेच्छायां च” वार्तिकेन परेच्छायां क्यच् (ते जनिम प्रवत्) तव प्रादुर्भावः साक्षात्कारः प्रकृष्टः श्रेष्ठोऽस्ति (साची-इव विश्वा भुवना-नि-ऋञ्जसे) सचते समवैति साची “षच समवाये” [भ्वादि०] ततो णिनिश्छान्दसः सङ्गीव सर्वाणि भूतानि “भुवनानां भूतानाम्” [निरु० ७।२२] सर्वे प्राणिनो नितरां प्रसाधयसे योग्यान् सम्पादयसि “ऋञ्जति प्रसाधनकर्मा” [निरु० ६।२१] (नः-धियः) अस्माकं स्तुतिवाचः “वाग्वै धीः” [ऐ० १।१।४] (सप्तयः) त्वां परिचरन्त्यः “सपति परिचरणकर्मा” [निघ० ३।५] स्पृशन्त्योषा “सपतेः स्पृशतिकर्मणः” [निरु० ५।१६] (प्र प्र सनिषन्त) प्रकर्षेण सम्भजन्ते (त्मना पुरः चरन्ति पशुपाः-इव) आत्मना प्रेरितास्तव सम्मुखं चरन्ति पशुपाला इव, यथा पशुपालाः पशूनां सम्मुखं चरन्ति ॥२॥