पदार्थान्वयभाषाः - (पितरः-अस्मै-एतं लोकम्-अक्रन्) जो ये सूर्य की रश्मियाँ हैं, इस जीव के लिये इस पृथिवीलोक को पुनर्जन्मार्थ तैयार करती हैं (अतः अपेत वीत विसर्पत च) अत एव इस स्थान से वे सूर्य की किरणें जीव को साथ लेकर अपगमन, विगमन और विसपर्ण करती हैं अर्थात् प्रथम पृथिवी पर फैलती हैं, पश्चात् ऊपर अन्तरिक्ष में पक्षी के तुल्य उड़ती हुई विस्तृत हो ले जाती हैं, पुनः द्युलोक में अति सूक्ष्मता से पहुँचती हैं (यमः अस्मै अहोभिः-अद्भिः-अक्तुभिः) सूर्य इस जीव के लिये अहर्गण-उषोगण-रात्रिगण से अर्थात् कुछ दिनों उषाओं और रात्रियों से प्रकटीभूत विराम को देता है। जैसे कठोपनिषद् में यम के यहाँ जीवात्मा के तीन दिन रात के रहने की चर्चा है, जो कि पृथिवी-अन्तरिक्ष-द्युस्थान के गमन-क्रम से संबन्ध रखता है, इस प्रकार पुनर्जन्मप्राप्ति के लिये स्थिर करता है ॥९॥
भावार्थभाषाः - शरीरपात हो जाने के पश्चात् जीव सूर्य की पृथिवीसम्बन्धी रश्मियों को प्राप्त होता है, पुनः अन्तरिक्षसम्बन्धी किरणों को और पश्चात् द्युस्थान के गमन-क्रम से संबन्ध रखता है, इस प्रकार पुनर्जन्मप्राप्ति के लिये स्थिर करता है ॥९॥