पदार्थान्वयभाषाः - (मातली कव्यैः यमः अङ्गिरोभिः बृहस्पतिः ऋक्वभिः ववृधानः) मातली-पृथिवीस्थानी अग्नि, वह दो प्रकार का है−एक प्राणी के अन्तर्गत जीवनाग्नि कव्य अन्नादि भोजनों से तथा भौतिक अग्नि कव्य पृथिवी से उत्पन्न पार्थिव अन्न-घृत-तैल-काष्ठ आदि ईन्धन द्रव्यों से बढ़ाता है, यम मध्यस्थानी देव प्राणी के अन्तवर्ती जीवनकाल। दूसरा, भौतिक लोकों का अन्तकारी विश्वकाल; अङ्गिरों, प्राणों, प्राणक्रियाओं तथा प्राणनामक कालविभागों, सूर्यरश्मियों से निष्पन्नकाल गतियों से बढ़ता है, बृहस्पति ऊर्ध्वस्थानी देव। प्राणी के अन्तर्वर्ती जीवन-प्राण और दूसरा भौतिक वर्षा का नियामक देव, जो कि मेघमण्डल में वर्तमान जलवृष्टि से प्रजा को जीवन प्रदान करता है। वह ऋक्वों-विविधगुणवाली कृत्रिम और स्वाभाविक वाणियों स्तनयित्नुरूप गर्जन शब्दों से वृद्धि को प्राप्त होता है। ऐसा होने पर (देवाः यान्-च ववृधुः) पूर्वोक्त वृद्धि को प्राप्त हुए अग्नि देवों ने जिन लोगों को बढ़ाया तथा (ये च देवान्) और जिन लोगों ने पूर्वोक्त अग्नि आदि देवों को बढ़ाया, वे (अन्ये स्वधया मदन्ति) कुछ एक जन तो अन्नादि भोजनों से उन शरीर के अन्तर्वर्ती अग्नि आदि देवों को तृप्त करते हैं (अन्ये स्वाहा मदन्ति) कतिपय जन आहुति प्रदान करके भौतिक अग्नि आदि देवों का सेवन करते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिए कि अपने व्यक्तिगत जीवन की उन्नति के लिए निज जीवनाग्नि, जीवनकाल और जीवनप्राण को उत्तममोत्तम भोजनों के सेवन से उपयुक्त बनावें तथा समाज वा सर्वप्राणियों के हितार्थ अग्निहोत्र से भौतिक अग्नि, सामष्टिक काल और मेघमण्डल को उपयुक्त करते रहें ॥३॥ ‘मातलिरिन्द्रस्य सारथिस्तद्वानिन्द्रो मातली’ (सायण) यहाँ ‘मातलि इन्द्र का सारथि और उस सारथि से युक्त मातली इन्द्र है’ यह तथा मातली का इन्द्र अर्थ करना सर्वथा अनुपपन्न है, क्योंकि प्रथम तो मातली इन्द्र का सारथि हो, इसके लिए निरुक्तादि वैदिक साहित्य में स्थान नहीं, दूसरे इकारान्त शब्द से मत्वर्थीय इन् प्रत्यय हो ही नहीं सकता, उसका विधान अकारान्त से है। इसलिये मातली का इन्द्र अर्थ करना अनुचित है ॥