पदार्थान्वयभाषाः - (प्रस्वः-अव असृजः) हे इन्द्र, विद्युत् अग्नि, या राजन् ! ओषधि आदि रसभरियों को या मेघ-से जलों को, प्रशस्त संतानोत्पादक प्रजाओं को सम्पादित कर (गिरीन् श्वञ्चयः) मेघों को सञ्चालित कर या पर्वतसदृश शत्रुओं को विचलित कर (उस्राः-उदाजः) मेघों को गिराकर सूर्यकिरणों को उभार या स्वराष्ट्र में अज्ञाननिवारण करके ज्ञानरश्मियों को उभार (प्रियं मधु-अपिबः) अभीष्ट मधुर जल को पिला या अनुकूल मधुर ज्ञानरस को पिला (वनिनः-अवर्धयः) वनाश्रित वृक्षों को या वनवाले-जलवाले-तडागादियों को बढ़ा, या अपने भक्तों को बढ़ा (अस्य दंससा सूर्यः शुशोच) इस इन्द्र विद्युत् के कर्म से, मेघनिपातन कर्म से सूर्य दीप्त प्रकाशित हो जाता है या इस राजा के अज्ञाननिवारण कर्म से ज्ञानसूर्य राष्ट्र में प्रकाशित हो जाता है (ऋतजातया गिरा) यज्ञरूप परमात्मा से उत्पन्न हुई वाणी के द्वारा ज्ञान प्रकट हो जाता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - मेघ से जल बरसते हैं तो ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं, राष्ट्र में प्रशस्त प्रजाएँ उत्पन्न होनी चाहिये, पर्वतसदृश शत्रुओं को चलित करना चाहिये, मेघों के गिर जाने से सूर्य प्रकाशित हो जाता है, राष्ट्र में अज्ञान के दूर होने से ज्ञानसूर्य उदित हो जाता है, मेघ से अभीष्ट मधुर जल पीने को मिलता है, राष्ट्र में अनुकूल मधुर ज्ञानरस पिया जाता है, वनाश्रित वृक्षों को या जलवाले तडाग आदि को वर्षाजल बढ़ाते हैं, राष्ट्र में राजा अपने सम्भक्तों को बढ़ाता है, परमात्मरूप-यज्ञ से उत्पन्न वाणी द्वारा सुखसंचार होता है ॥२॥