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तव॒ त्य इ॑न्द्र स॒ख्येषु॒ वह्न॑य ऋ॒तं म॑न्वा॒ना व्य॑दर्दिरुर्व॒लम् । यत्रा॑ दश॒स्यन्नु॒षसो॑ रि॒णन्न॒पः कुत्सा॑य॒ मन्म॑न्न॒ह्य॑श्च दं॒सय॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tava tya indra sakhyeṣu vahnaya ṛtam manvānā vy adardirur valam | yatrā daśasyann uṣaso riṇann apaḥ kutsāya manmann ahyaś ca daṁsayaḥ ||

पद पाठ

तव॑ । त्ये । इ॒न्द्र॒ । स॒ख्येषु॑ । वह्न॑यः । ऋ॒तम् । म॒न्वा॒नाः । वि । अ॒द॒र्दि॒रुः॒ । व॒लम् । यत्र॑ । द॒श॒स्यन् । उ॒षसः॑ । रि॒णन् । आ॒पः । कुत्सा॑य । मन्म॑न् । अ॒ह्यः॑ । च॒ । दं॒सयः॑ ॥ १०.१३८.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:138» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:26» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में मेघ से वृष्टि गिराने के प्रकार तथा शत्रु के परास्त करने की विधियाँ दर्शाई हैं। उसका फल प्रजा के लिये हो, यह कहा गया है।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे विद्युद्देव ! या राजन् ! (तव सख्येषु) तेरे मित्र भावों में (त्ये वह्नयः) हे मेघ के वहन करनेवाले मरुत्-हवाएँ-वायुवें-या कार्यभार के वहन करनेवाले विद्वान्  (ऋतं मन्वानाः) जल को धारण करनेवाले या सत्य नियम या विधान को समझनेवाले (वलं वि अदर्दिरुः) मेघ को अत्यन्त विदीर्ण करते हैं या आवरक आक्रमणकारी शत्रु को विदीर्ण करते हैं (यत्र) जिस काल में (उषसः-दशस्यन्) तू अपनी तरङ्गों को फेंकता हुआ (अपः-रिणन्) जलों को स्रवित करता हुआ वर्तमान है या स्वतेजों-तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रों को फेंकता हुआ वरुणास्त्रों को चलाता हुआ वर्तमान है, उस समय (च) और (कुत्साय) भूमिकर्षक किसान के लिए या स्वप्रशंसक प्रजागण के लिए (मन्मन्) उस मनोरथ के निमित्त (अह्यः-दंसयः) मेघ गिराने योग्य कर्म प्रवृत्त होते हैं या अपघातक शत्रुवधसम्बन्धी कर्म को प्रवृत्त होते हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - मेघों को वहन करनेवाली हवाएँ जल को धारण करने के हेतु मेघ को अत्यन्त विदीर्ण करती हैं, उसमें विद्युत् अपनी तरङ्गों को फेंकता हुआ जल को नीचे स्रवित करता हुआ किसान के मनोरथ के निमित्त मेघ निपातनकर्म में प्रवृत्त होते हैं, तो वर्षा होने लगती है एवं राष्ट्र के कार्यभार को वहन करनेवाले यथार्थ-विधान को समझते हुए आक्रमणकारी शत्रु को विदीर्ण करते हैं, तब राजा अपने तेजों, तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रों को फेंकता हुआ फैले हुए शत्रुदल को नीचे गिराता है, सब प्रशंसक प्रजागण के लिए मनोरथसिद्धि के निमित्त शत्रुवधसम्बन्धी विविध कर्म प्रवृत्त हो जाते हैं ॥१॥
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ब्रह्ममुनि

अस्मिन् सूक्ते मेघाद्वृष्टिनिपातनप्रकारास्तथा शत्रोः परास्तकरणविधयश्च दर्श्यन्ते तत्फलं च प्रजायै स्यादित्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे विद्युद्देव राजन् ! वा (तव सख्येषु) तव सखित्वेषु (त्ये वह्नयः) ते मेघस्य वोढारो मरुतः कार्यभारस्य वोढारो विद्वांसो वा (ऋतं मन्वानाः) उदकं धारयमाणाः, सत्यनियमं विधानं बुध्यमानाः वा (वलं वि अदर्दिरुः) मेघमत्यन्तं विदारितवन्तः-विदारयन्ति, आवरकमाक्रमणकारिणं शत्रुं विदारयन्ति (यत्र) यस्मिन्काले (उषसः-दशस्यन्-अपः-रिणन्) त्वं स्वतरङ्गान् क्षिपन्-अपः स्रावयन् वर्तसे, स्वतेजांसि तीक्ष्णशस्त्रास्त्राणि क्षिपन् वारुणास्त्राणि च पातयन् वा वर्तसे, तस्मिन् काले (च) तथा (कुत्साय) भूमेः कर्षकाय, स्वप्रशंसकाय प्रजागणाय वा (मन्मन्) तन्मनोरथनिमित्तं (अह्यः-दंसयः) मेघनिपातयोग्यानि कर्माणि प्रवर्तन्ते, यद्वाऽपघातकशत्रुवधसम्बन्धीनि कर्माणि “दंसयः कर्माणि” [निरु० ४।२५] प्रवर्तन्ते ॥१॥