पदार्थान्वयभाषाः - (देवेभ्यः कं मृत्युम्-अवृणीत) बृहस्पति परमात्मा मुमुक्षुजनों के लिए किस मृत्यु को स्वीकार करता है अर्थात् किसी भी मृत्यु को नहीं किन्तु स्वाभाविक जरानन्तर होनेवाली मृत्यु को स्वीकार करता है क्योंकि देव तो अमर होते हैं (प्रजायै कम्-अमृतं न-अवृणीत) देवों से भिन्न प्रजायमान केवल जन्म धारण करने योग्य प्रजा के लिए किसी भी अमृत को नहीं स्वीकार करता। वह तो जन्म में भोगरत है, यह कैसे ? (बृहस्पतिम्-ऋषि यज्ञम्-अकृण्वत) वेदस्वामी सर्वज्ञद्रष्टा परमात्मा को जो सङ्गमनीय बनाते हैं, उसे आश्रित करते हैं, उन मुमुक्षुओं के लिए किसी मृत्यु को न करके उन्हें अमृत बनाता है और उनसे विपरीत पुनः-पुनः प्रजायमान नास्तिकों-प्रेयमार्ग में प्रवृत्त हुओं की (प्रिया तन्वं यमः प्रारिरेचीत्) प्यारी देह को काल प्राणरहित कर देता है ॥४।
भावार्थभाषाः - सर्वज्ञ अन्तर्यामी परमात्मा उपासना करते हुए मुमुक्षुओं के लिये जरा के अनन्तर ही मृत्यु को करता है, मध्य में नहीं और उनसे भिन्न नास्तिक जनों की देह को काल प्राणों से रिक्त कर देता है, उनको अमृत की प्राप्ति नहीं होती ॥४॥