ओर्व॑प्रा॒ अम॑र्त्या नि॒वतो॑ दे॒व्यु१॒॑द्वत॑: । ज्योति॑षा बाधते॒ तम॑: ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
orv aprā amartyā nivato devy udvataḥ | jyotiṣā bādhate tamaḥ ||
पद पाठ
आ । उ॒रु । अ॒प्राः॒ । अम॑र्त्या । नि॒ऽवतः॑ । दे॒वी । उ॒त्ऽवतः॑ । ज्योति॑षा । बा॒ध॒ते॒ । तमः॑ ॥ १०.१२७.२
ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:127» मन्त्र:2
| अष्टक:8» अध्याय:7» वर्ग:14» मन्त्र:2
| मण्डल:10» अनुवाक:10» मन्त्र:2
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ब्रह्ममुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (अमर्त्या) स्वरूप से नित्य (देवी) रात्रि देवी (अद्वतः) ऊँचे प्रदेशों को (निवतः) नीचे प्रदेशों को (उरु-आ-अप्राः) बहुत व्याप जाती है अर्थात् ऊँचे नीचे को समान कर देती है (ज्योतिषा) गगन ज्योति से (तमः) अन्धकार को (बाधते) निवृत्त करती है, अपितु प्राणियों को सुलाकर मन के अन्दर वर्त्तमान अन्धकार जड़ता को निवृत्त करती है पूर्ण विश्राम प्रदान करके ॥२॥
भावार्थभाषाः - रात्रि शाश्वत है, आरम्भ सृष्टि से चली आती है, ऊँचे स्थानों और नीचे स्थानों को व्यापती है, उन्हें एकरूप में दिखाती है, नक्षत्रसमूह की ज्योति से अन्धकार को हटाती है तथा सुलाकर-निद्रा लाकर मन में विद्यमान अन्धकार व जड़ता को विश्राम देकर हटाती है, रात्रि को शयन ही करना चाहिये ॥२॥
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ब्रह्ममुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (अमर्त्या) स्वरूपतो नित्या (देवी) रात्रिर्देवी (उद्वतः-निवतः-उरु-आ-अप्राः) उद्वतान् प्रदेशान् निम्नगतान् प्रदेशान् च समन्तात् खलु बहु पूरयति व्याप्नोति (ज्योतिषा तमः-बाधते) रात्रौ गगनज्योतिषा तमो निवारयति, अपि तु शयनं कारयित्वा मनसि वर्त्तमानस्यान्धकारस्य जाड्यस्य पूर्णं विश्रामं प्रदाय मानसं तमो निवारयति ॥२॥