वांछित मन्त्र चुनें

अग्ने॒ हंसि॒ न्य१॒॑त्रिणं॒ दीद्य॒न्मर्त्ये॒ष्वा । स्वे क्षये॑ शुचिव्रत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne haṁsi ny atriṇaṁ dīdyan martyeṣv ā | sve kṣaye śucivrata ||

पद पाठ

अग्ने॑ । हंसि॑ । नि । अ॒त्रिण॑म् । दीद्य॑त् । मर्त्ये॑षु । आ । स्वे । क्षये॑ । शु॒चि॒ऽव्र॒त॒ ॥ १०.११८.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:118» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:10» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में परमेश्वर सब सुखों का दाता, दुःखनिवारक, मोक्ष में प्रेरक तथा अग्नि घी होम द्वारा रोगनाशक सुखदायक है इत्यादि विषय हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (शुचिव्रत-अग्ने) हे ज्ञानप्रकाश कर्मवाले ! या ज्वलन कर्मवाले अग्रणायक परमात्मन् ! या अग्नि ! (मर्त्येषु) मनुष्यों में या ऋत्विजों में (स्वे क्षये) स्वनिवास हृदय में या हव्यस्थान कुण्ड में (दीद्यत्) प्रकाशित होता हुआ या जलता हुआ (अत्रिणम्) आत्मतेज को खानेवाले काम भाव को या रक्तभक्षक कृमि को (आ नि हंसि) भलीभाँति नष्ट करता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा ज्ञानप्रकाश करता हुआ मनुष्यों के हृदयों में प्रकाशित होकर-प्राप्त होकर आत्मतेज को खानेवाले काम भाव को नष्ट करता है एवं ज्वलन कर्मवाला अग्नि हव्यस्थान यज्ञकुण्ड में जलता हुआ रक्तभक्षक कृमि को नष्ट करता है तथा परमात्मा की उपासना और हवन करना चाहिये ॥१॥
बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

अत्र सूक्ते परमेश्वरः सर्वसुखानां दाता दुःखनिवारको-मोक्षे प्रेरकश्च तथाऽग्निरपि रोगाणां नाशकोऽभीष्टसुखप्रदाता चेत्येवमादयो विषया वर्ण्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः - (शुचिव्रत-अग्ने) ज्ञानप्रकाशनं कर्म यस्य स त्वमग्रणायक परमात्मन् ! ज्वलनं कर्म यस्य वा स त्वमग्ने ! वा (मर्त्येषु स्वे क्षये) मनुष्येषु स्वे निवासे हृदये यद्वा-ऋत्विक्षु हव्यस्थाने कुण्डे (दीद्यत्) प्रकाशितो भवन् ज्वलन् सन् “दीदयति ज्वलतिकर्मा” [निघ० १।१६] (अत्रिणम्-आ नि हंसि) आत्मतेजसो-भक्षयितारं कामं रक्तभक्षकं कृमिं वा समन्तात् खलु निहंसि विनाशयसि ॥१॥