पदार्थान्वयभाषाः - (विप्राः) परमात्मा को विविध स्तुतियों से अपने अन्दर पूर्ण करनेवाले-धारण करनेवाले (कवयः) मेधावी जन (वचोभिः) स्तुतिवचनों के द्वारा (सुपर्णम्) शोभन पालनकर्त्ता (एकं सन्तम्) एक होते हुए को (बहुधा कल्पयन्ति) बहुत प्रकार से या बहुत नामों से मानते हैं या वर्णन करते हैं (छन्दांसि च) और गायत्र्यादि छन्द भी (अध्वरेषु) यज्ञों में (दधतः) धारण-करते हुए (सोमस्य) सोम के चन्द्रमा के (द्वादश ग्रहान्) चैत्रादि बारहमासों को (मिमते) मानरूप से करते हैं जैसे, उसी प्रकार आनन्दरसरूप सोम परमात्मा के द्वादश मासों के निर्माता धर्म के अनुरूप स्मरण करने योग्य होने से या स्मरण के साधन होने से द्वादश ग्रहों-आनन्दरस को ग्रहण करने के पात्रों आत्मा, मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ वाक् और प्राण मानते हैं ॥५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा के स्वरूप को अपने अन्दर धारण करनेवाले मेधावी स्तोता जन उस एक परमात्मा को अनेक प्रकार से या अनेक नामों से वर्णित करते हैं या मानते हैं, गायत्र्यादि छन्द यज्ञों में उसका वर्णन करते हैं, चन्द्रमा जैसे चैत्र आदि बारह मासों में ग्रहण किया जाता है, ऐसे ही सोमरूप परमात्मा के ग्रहणपात्र स्मरण करने के स्थान बारह हैं, जो कि आत्मा, मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ वाणी और प्राण हैं ॥५॥