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दैव्या॒ होता॑रा प्रथ॒मा सु॒वाचा॒ मिमा॑ना य॒ज्ञं मनु॑षो॒ यज॑ध्यै । प्र॒चो॒दय॑न्ता वि॒दथे॑षु का॒रू प्रा॒चीनं॒ ज्योति॑: प्र॒दिशा॑ दि॒शन्ता॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

daivyā hotārā prathamā suvācā mimānā yajñam manuṣo yajadhyai | pracodayantā vidatheṣu kārū prācīnaṁ jyotiḥ pradiśā diśantā ||

पद पाठ

दैव्या॑ । होता॑रा । प्र॒थ॒मा । सु॒ऽवाचा॑ । मिमा॑ना । य॒ज्ञम् । मनु॑षः । यज॑ध्यै । प्र॒ऽचो॒दय॑न्ता । वि॒दथे॑षु । का॒रू इति॑ । प्रा॒चीन॑म् । ज्योतिः॑ । प्र॒ऽदिशा॑ । दि॒शन्ता॑ ॥ १०.११०.७

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:110» मन्त्र:7 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:9» मन्त्र:7


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (दैव्या होतारा) देवों में होनेवाले प्रमुख तथा पदार्थों के होता अग्नि वायु (प्रथमा सुवाचा) प्रथम वाक् शक्ति के देनेवाले हैं (मनुषः) प्रत्येक मनुष्य के (यज्ञम्) शरीरयज्ञ को (मिमाना) निर्माण करनेवाले (यजध्यै) यजन के लिये (प्रचोदयन्ता) प्रेरित करनेवाले (विदथेषु) यज्ञों में (कारू) दो शिल्पियों के समान करनेवाले (प्रदिशा) प्रक्रिया से (प्राचीनं ज्योतिः) पूर्व दिशा में ज्योति यजनीय है, ऐसे (दिशन्ता) प्रेरित करते हुए हैं ॥७॥अध्यात्मदृष्टि से−परमात्मा के ज्ञानप्रेरक और कर्मप्रेरक दो धर्म अथवा वेद और संसार दो रचनाएँ हैं, जो अध्यात्मयज्ञ का निर्माण करनेवाले हैं, वेद तो ज्ञान देने से और संसार कर्म करने से समस्त यजनकार्यों में पुरातन ज्योतिस्वरूप परमात्मा को प्रदिष्ट करते हैं-बतलाते हैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - दो याजकों के समान भौतिक देवों में अग्नि और वायु हैं। ये ही मनुष्य के शरीरयज्ञ का निर्माण करते हैं तथा संसार के शिल्परूप यज्ञों में ही शिल्पी का कार्य करते हैं। ये ही पूर्व दिशा में वर्तमान ज्योति सूर्य को सङ्केतित करते हैं ये उसके आधार पर हैं। अध्यात्मदृष्टि से−परमात्मा के ज्ञानप्रेरक और कर्मप्रेरक दो गुण हैं अथवा वेद और संसार दो उसके शिल्प हैं-कार्य हैं, ये अध्यात्मयज्ञ का निर्माण करते हैं, समस्त यज्ञकार्यों-श्रेष्ठ आचरणों में पुरातन ज्योतिरूप परमात्मा को सुझाते हैं, बतलाते हैं ॥७॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (दैव्या होतारा) देव्यौ देवानामिमौ देवेषु भवौ प्रमुखभूतौ तथा पदार्थानां होतारौ तौ खल्वग्निवायू (प्रथमा सुवाचा) प्रमुखौ वाक्शक्तिप्रदौ स्तः, (मनुषः-यज्ञं मिमाना) मनुष्यस्य शरीरयज्ञं-निर्मिमाणौ (यजध्यै) यजनाय (प्रचोदयन्ता) प्रेरयितारौ (विदथेषु) यज्ञेषु (कारू) कर्त्तारौ (प्रदिशा प्राचीनं ज्योतिः) प्रक्रियया पूर्वस्यां दिशि पुरातनं ज्योतिर्यष्टव्यमिति (दिशन्ता) प्रदिशन्तौ प्रेरयन्तौ तिष्ठतः ॥७॥ अध्यात्मदृष्ट्या−परमात्मनो द्वौ ज्ञानप्रेरककर्मप्रेरकौ धर्मौ यद्वा वेदसंसारौ खल्वध्यात्मयज्ञस्य निर्मातारौ स्तः, वेदो ज्ञानदानेन संसारः कर्मदानेन तौ समस्तयजनकार्येषु पुरातनं ज्योतिःस्वरूपं परमात्मानं प्रथमं प्रदिशतः ॥७॥