पदार्थान्वयभाषाः -  (देवीः-द्वारः) दिव्य अग्निज्वालाएँ (पतिभ्यः-न) पतियों के लिये जैसे (शुम्भमानाः-जनयः) सुशोभित हुई जायाएँ-पत्नियाँ (व्यचस्वतीः) विशिष्ट सुख पहुँचाती हुईं (उर्विया) वरणीयतम जङ्घाओं से (विश्रयन्ताम्) विशेष आश्रय लेती हैं, वैसे तुम आश्रय लेवो। (बृहतीः) वे तुम उदार, विशाल (देवेभ्यः) वायु आदि देवों के लिये (विश्वमिन्वाः) सब प्राप्त करानेवाली सुखप्रद होवो। अध्यात्मदृष्टि से-अध्यात्म यज्ञ में-परमात्मा की व्याप्तियाँ या विभूतियाँ उसके द्वारभूत पतियों के लिये सुशोभायमान पत्नियाँ जैसे होती हैं, वैसे स्तुति करनेवालों के लिये आकर्षक तथा सुख प्राप्त करानेवाली होती हैं, यह आशय है ॥५॥              
              
              
                            
                  भावार्थभाषाः -  होमयज्ञ में अग्नि की ज्वालाएँ वायु आदि देवों का आलिङ्गन सा करती हुईं शोभायमान प्रतीत होती हैं, वे उदार बनी हुई अपने को देवों के प्रति समर्पित कर रही हैं एवं अध्यात्मयज्ञ में परमात्मा की व्याप्तियाँ या विभूतियाँ स्तुति करनेवालों के लिये आकर्षक सुख प्राप्त करानेवाली बन जाती हैं ॥५॥