वांछित मन्त्र चुनें

स॒द्यो जा॒तो व्य॑मिमीत य॒ज्ञम॒ग्निर्दे॒वाना॑मभवत्पुरो॒गाः । अ॒स्य होतु॑: प्र॒दिश्यृ॒तस्य॑ वा॒चि स्वाहा॑कृतं ह॒विर॑दन्तु दे॒वाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sadyo jāto vy amimīta yajñam agnir devānām abhavat purogāḥ | asya hotuḥ pradiśy ṛtasya vāci svāhākṛtaṁ havir adantu devāḥ ||

पद पाठ

स॒द्यः । जा॒तः । वि । अ॒मि॒मी॒त॒ । य॒ज्ञम् । अ॒ग्निः । दे॒वाना॑म् । अ॒भ॒व॒त् । पु॒रः॒ऽगाः । अ॒स्य । होतुः॑ । प्र॒ऽदिशि॑ । ऋ॒तस्य॑ । वा॒चि । स्वाहा॑ऽकृतम् । ह॒विः । अ॒द॒न्तु॒ । दे॒वाः ॥ १०.११०.११

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:110» मन्त्र:11 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:9» मन्त्र:6 | मण्डल:10» अनुवाक:9» मन्त्र:11


बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) अग्नि (जातः) प्रज्वलित हुआ (सद्यः) तत्काल (यज्ञम्) यज्ञ को (वि अमिमीत) निर्माण करती है-सम्पन्न करती है (देवानाम्) वायु-आदि देवों की (पुरोगाः) अग्रगामी (अभवत्) होती है (ऋतस्य) यज्ञ के (अस्य होतुः) इस होतारूप अग्नि के (वाचि) मुख में (प्रदिशि) ज्वलित प्रदेश में (स्वाहाकृतम्) सम्यग्हुत किये हुए (हविः) हव्य पदार्थ को (देवाः) वायु आदि देव (अदन्तु) ग्रहण करते हैं। अध्यात्मदृष्टि से−आत्मा शरीर में जन्म लेते ही शरीरयज्ञ को चलाता है, इन्द्रियदेवों का पुरोगामी होता है, यह शरीरचालक आत्मा के मुख में-शरीर एक देश में हव्य खाने-पीने योग्य वस्तु मनुष्य समर्पित करते हैं, पीछे ही इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं, आत्मा ही शरीरयज्ञ का होता नाम का ऋत्विक् है ॥११॥
भावार्थभाषाः - काष्ठों में अग्नि प्रज्वलित होते ही होमयज्ञ का प्रारम्भ कर देती है, यह वायु आदि देवों की अग्रगामी बनती है, इसके प्रज्वलित प्रदेश में डाले हुए हव्य पदार्थ को वायु आदि देव ले लेते हैं, इसलिये वायु आदि देवों को स्वास्थ्यप्रद बनाने के लिये अग्नि में उत्तम-उत्तम ओषधियाँ होमनी चाहिये। अध्यात्मदृष्टि से−आत्मा शरीर में जन्मते ही शरीर का निर्माण आरम्भ कर देता है, इन्द्रियों का अग्रगामी बन जाता है, इसके लिये शरीर के एकदेश मुख में डाला हुआ आहार इन्द्रियों तक पहुँचता है। यदि इस आत्मा को आध्यात्मिक चर्चा का आहार मिले तो इन्द्रियाँ भी पवित्र और संयत रहती हैं ॥११॥
बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) अग्निर्देवः (जातः) जायमानः ज्वलन् सन् (सद्यः) तत्कालमेव (यज्ञं वि अमिमीत) होमयज्ञादिकं निर्माति सम्पादयति (देवानां पुरोगाः अभवत्) वायुप्रभृतीनां देवानामग्रगामी भवति (ऋतस्य-होतुः-अस्य) यज्ञस्य “ऋतस्य योगे यज्ञस्य योगे” [निरु० ६।२२] होतुरस्याग्नेः “तस्य यज्ञस्य-अग्निर्होताऽऽसीत् [गो० पू० १।३] (वाचि प्रदिशि) मुखे ज्वलिते प्रदेशे (स्वाहाकृतं हविः-देवाः-अदन्तु) सम्यग्हुतं हव्यं वायुप्रभृतयो देवा गृह्णन्ति ॥११॥ अध्यात्मदृष्ट्या−आत्मा शरीरे जायमान एव शरीरयज्ञं चालयति, देवानामिन्द्रियदेवानामेष पुरोगामी भवति, अस्य शरीरचालक-स्यात्मनो मुखे शरीरैकदेशे हव्यमदनीयं वस्तु समर्पयन्ति जनाः, तदनु हीन्द्रियाणि गृह्णन्ति आत्मा-हि शरीरयज्ञस्य होता “आत्मा वै यज्ञस्य होता” [कौ० ९।६] “आत्मा वै होता” [ऐ० ६।८] ॥११॥