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उदी॑रय पि॒तरा॑ जा॒र आ भग॒मिय॑क्षति हर्य॒तो हृ॒त्त इ॑ष्यति । विव॑क्ति॒ वह्नि॑: स्वप॒स्यते॑ म॒खस्त॑वि॒ष्यते॒ असु॑रो॒ वेप॑ते म॒ती ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud īraya pitarā jāra ā bhagam iyakṣati haryato hṛtta iṣyati | vivakti vahniḥ svapasyate makhas taviṣyate asuro vepate matī ||

पद पाठ

उत् । ई॒र॒य॒ । पि॒तरा॑ । जा॒रः । आ । भग॑म् । इय॑क्षति । ह॒र्य॒तः । हृ॒त्तः । इ॒ष्य॒ति॒ । विव॑क्ति । वह्निः॑ । सु॒ऽअ॒प॒स्यते॑ । म॒खः । त॒वि॒ष्यते॑ । असु॑रः । वेप॑ते । म॒ती ॥ १०.११.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:11» मन्त्र:6 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (भगम्-उदीरय) हे ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! इस अध्यात्मयज्ञ या राजसूययज्ञ को उन्नत कर (जारः आ पितरा) रात्रि का जरण करनेवाला सूर्य जैसे अपने तेज को द्यावापृथिवी के प्रति पृथिवी से लेकर द्युलोक तक पहुँचाता है (हर्यतः-हृत्तः-इयक्षति-इष्यति) यह आस्तिकमनवाला या राजा हरने योग्य मन से यज्ञ करना चाहता है और हदय से चाहता है (वह्निः) अध्यात्मयज्ञ को वहन करनेवाला आस्तिकमनवाला या राष्ट्र तथा प्रजा को वहन करनेवाला राजा (विवक्ति) तुझ परमात्मा से नियम से प्रार्थना करता है (स्वपस्यते) सम्यक् कर्माचरण करता है (मखः तविष्यते) अध्यात्मयज्ञ तथा राजसूययज्ञ समृद्ध होता है (मती असुरः वेपते) तब मति से-स्वविपरीत मति से अनृतभाव दुर्विचार या असत्याचरण करनेवाला दुष्टजन काँपता है-भाग जाता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - आस्तिक मनवाले तथा प्रजापालक राजा के अध्यात्मयज्ञ और राजसूय को परमात्मा समृद्ध करता है, उसके पास से दुर्भाव मिट जाता है, दुष्ट अत्याचारी भी नष्ट हो जाता है ॥६॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (भगम्-उदीरय) अग्ने ज्ञानप्रकाशक परमात्मन् ! भगमध्यात्मयज्ञं राजसूययज्ञम् “यज्ञो वै भगः” [श०६।१।१।१९] ऊर्ध्वं नय-समृद्धं कुरु (जारः-आ पितरा) यथा जारः-रात्रेर्जरयिता सूर्यः-द्यावापृथिव्यौ स्वतेजसा-आपूरयति (हर्यतः-हृत्तः-इयक्षति-इष्यति) एष आस्तिकमनस्वी राजा वा हर्तुं योग्यं हर्यं मनस्तस्माद् यष्टुमिच्छति, हृत्तो हृदयाच्चेच्छति (वह्निः) अध्यात्मभावं वहमानः-आस्तिकमनस्वी, राष्ट्रं प्रजां वा वहमानो राजा (विवक्ति) त्वां परमात्मानं नियमेन प्रार्थयते (स्वपस्यते) सम्यक् कर्माचरति (मखः-तविष्यते) यज्ञोऽध्यात्मयज्ञो राजसूययज्ञो वा समृद्ध्यते “यज्ञो वै मखः” [तै०३।२।८।३] (मती-असुरः-वेपते) ततः मत्या विमत्या-आसुरः दुर्विचारोऽनृतभावः दुर्विचारवान् दुष्टो जनो वा “अनृतेनासुरान्” [का०९।११] वेपते-कम्पते-पलायते ॥६॥