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रप॑द्गन्ध॒र्वीरप्या॑ च॒ योष॑णा न॒दस्य॑ ना॒दे परि॑ पातु मे॒ मन॑: । इ॒ष्टस्य॒ मध्ये॒ अदि॑ति॒र्नि धा॑तु नो॒ भ्राता॑ नो ज्ये॒ष्ठः प्र॑थ॒मो वि वो॑चति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

rapad gandharvīr apyā ca yoṣaṇā nadasya nāde pari pātu me manaḥ | iṣṭasya madhye aditir ni dhātu no bhrātā no jyeṣṭhaḥ prathamo vi vocati ||

पद पाठ

रप॑त् । ग॒न्ध॒र्वीः । अप्या॑ । च॒ । योष॑णा । न॒दस्य॑ । ना॒दे । परि॑ । पा॒तु॒ । मे॒ । मनः॑ । इ॒ष्टस्य॑ । मध्ये॑ । अदि॑तिः । नि । धा॒तु॒ । नः॒ । भ्राता॑ । नः॒ । ज्ये॒ष्ठः । प्र॒थ॒मः । वि । वो॒च॒ति॒ ॥ १०.११.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:11» मन्त्र:2 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (गन्धर्वीः) सुखवृष्टिप्रसङ्ग में मानसीवृत्ति या पृथिवी को धारण करनेवाले राजा की या सूर्य की शक्ति (अप्या) जगत् में व्यापने वाली या राष्ट्र में व्यापनेवाली या अन्तरिक्ष में-आकाश में और मेघ में होनेवाली विद्युत् (योषणा) मिश्रणशील विषयों में जानेवाली या राष्ट्र में फैलनेवाली, मेघ में मिलनेवाली (रपत्) परमात्मा की स्तुति करती है, गरजती-कड़कती है (नदस्य नादे) स्तुतियोग्य के स्तुतिवचन में, घोषणीय के घोषण में, गर्जनीय के गर्जन में (मे मनः परिपातु) मेरे मनोभाव-कामना को परिपूर्ण करे (अदितिः इष्टस्य मध्ये नः निदधातु) अनश्वर मोक्ष के मध्य, अच्छिन्न राष्ट्र के अन्दर, पृथिवीप्रदेश के मध्य वह परमात्मा, राजा, सूर्य निरन्तर स्थापित करे (प्रथमः ज्येष्ठः भ्राता नः विवोचति) प्रकृष्टतम महान् भरणपोषणकर्ता परमात्मा, राजा, सूर्य हमें स्वीकार करता है, विशेषरूप से शासित करता है, वाणीशक्ति को प्रदान करता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - मन की व्यापनशील मनोवृत्ति परमात्मा से मिलानेवाली है, राजा की राष्ट्र में फैली राजनीति-न्यायनीति भी परमात्मा से मिलानेवाली होती है। सूर्य से व्याप्त अग्नि ही विद्युद्रूप में मेघ में दृष्टिगोचर होती है। परमात्मा के स्तवन से, घोषणीय राजा की घोषणा से, मेघ की गर्जना से, मानव के मनोभाव पूर्ण होते हैं। अनश्वरमोक्ष में विराजमान होना, अच्छिन्न राष्ट्र में रहना, सतत पार्थिव अन्नादि भोगों से तृप्त होना, साथ ही परमात्मा द्वारा हमें स्वीकार करना, राजा द्वारा शुभवचन-अभयवचन देना, मेघ का वाक्शक्ति देना आदि सुख हमारे लिये सदैव बने रहें ॥२॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (गन्धर्वीः) सुखवृष्टिप्रसङ्गे मानसी वृत्तिः “मनो गन्धर्वः” [श०९।४।१।१२] यद्वा गां पृथिवीं धारयति स गन्धर्वः-सूर्यः [श०८।४।१।८] राजा वा तच्छक्तिः (अप्या) आपनशीला-व्यापनशीला, अन्तरिक्षभवा विद्युत् “आपः-अन्तरिक्षनाम” [निघ०१।३] (च) तथा (योषणा) मिश्रणशीला विषये यद्वा राष्ट्रे मेघे वा (रपत्) परमात्मानं स्तौति, राजानं राजनीतिं घोषयति, गर्जति (नदस्य नादे) नदनीयस्य स्तोतव्यस्य स्तवने “नदति-अर्चतिकर्मा” [निघ०३।१४] यद्वा घोषणीयस्य घोषणे, गर्जनीस्य गर्जने (मे मनः-परिपातु) मम मनोभावं कामं परिरक्षतु-परिपूरयतु (अदितिः-इष्टस्य मध्ये नः निदधातु) ‘अदितिः-पष्ठीस्थाने प्रथमा व्यत्ययेन’, अखण्डनी-यस्यानश्वरस्याभीष्टस्य मोक्षस्य, अखण्डराष्ट्रस्य, पार्थिवस्यान्नादि-भोगस्य मध्येऽस्मान् स परमात्मा सूर्यो वा नितरां निरन्तरं स्थापयतु (प्रथमः-ज्येष्ठः-भ्राता नः विवोचति) प्रतमः-प्रकृष्टतमः श्रेष्ठो भरणकर्त्ता परमात्मा विशिष्टं वदति-स्वीकारवचनं ब्रवीति-अस्मान् स्वीकरोति, स सूर्यो विवाचयति-वाक् शक्तिं प्रयच्छति ॥२॥