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दे॒वा ए॒तस्या॑मवदन्त॒ पूर्वे॑ सप्तऋ॒षय॒स्तप॑से॒ ये नि॑षे॒दुः । भी॒मा जा॒या ब्रा॑ह्म॒णस्योप॑नीता दु॒र्धां द॑धाति पर॒मे व्यो॑मन् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

devā etasyām avadanta pūrve saptaṛṣayas tapase ye niṣeduḥ | bhīmā jāyā brāhmaṇasyopanītā durdhāṁ dadhāti parame vyoman ||

पद पाठ

दे॒वाः । ए॒तस्या॑म् । अ॒व॒द॒न्त॒ । पूर्वे॑ । स॒प्त॒ऽऋ॒षयः॑ । तप॑से । ये । नि॒ऽसे॒दुः । भी॒मा । जा॒या । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । उप॑ऽनीता । दुः॒ऽधाम् । द॒धा॒ति॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥ १०.१०९.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:109» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:7» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:9» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पूर्वे देवाः) पूर्व विद्वान् अग्नि आदि वेदप्रकाशक ऋषि (एतस्याम्) इस वेदत्रयी में निष्णात (अवदन्त) इसका उपदेश करते हैं (सप्त ऋषयः) सप्त जिसमें प्रविष्ट मन्त्रद्रष्टा विद्वान् (ये तपसे निषेदुः) जो ब्रह्मचर्यरूप तप के लिए स्थिर रहते हैं (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मचारी की (भीमा जाया) भयङ्करी पाप नष्ट करनेवाली जायारूपी वेदत्रयी (उपनीता) उपनयन संस्कार से प्राप्त गुरु से पढ़ी हुई (दुर्धाम्) दुर्धा-दुर्धारणा-तप से धारण करने योग्य (परमे व्योमन्) ब्रह्मचारी को परम व्यापक परमेश्वर में या मोक्ष में (दधाति) धारण कराती है-स्थापित करती है ॥४॥
भावार्थभाषाः - वेदत्रयी का उपदेश अग्नि आदि परम ऋषियों द्वारा मिलता है, ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले ब्रह्मचर्यनिष्ठ होकर मन्त्रार्थों को जाननेवाले ऋषि इसे जानते हैं और जनाते हैं, यह ब्रह्मचारी के पाप नष्ट करनेवाली उपनयन संस्कार द्वारा गुरु से प्राप्त होती है, उसे वह परमात्मा में या मोक्ष में पहुँचाती है ॥४॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पूर्वे देवाः-एतस्याम्-अवदन्त) पूर्वे विद्वांसः-अग्निप्रभृतयः-एतस्यां वेदत्रय्यां निष्णाताः खल्वेतां वेदत्रयीमुपदिशन्ति (सप्त ऋषयः) सृप्ताः-अस्यां प्रविष्टा मन्त्रद्रष्टारो विद्वांसः (ये तपसे निषेदुः) ये ब्रह्मचर्यव्रताय निषीदन्ति “ब्रह्मचर्येण तपसा” (ब्राह्मणस्य भीमा जाया) ब्राह्मणस्य ब्रह्मचारिणो भयङ्करी पापनाशिनी जाया वेदत्रयी (उपनीता) उपनयनसंस्कारेण प्राप्ता गुरोः सकाशादधीता (दुर्धाम्) दुर्धा सुस्थाने “अम् विभक्तिव्यत्ययेन” दुर्धारणा तपसा धारणीया सा (परमे व्योमन् दधाति) तं ब्राह्मणं ब्रह्मचारिणं परमे खलूत्कृष्टे व्यापके ब्रह्मणि मोक्षे वा “ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्” [ऋ० १।१६४।३९] “व्योमनि व्योमवद् व्यापके-ब्रह्मणि” [ऋ० १।१४३।२ दयानन्दः] धारयति-स्थापयति ॥४॥