पदार्थान्वयभाषाः - (इह) इस स्थान पर (ऋषयः) ऋषि-प्रगतिशील पदार्थ (आ गमन्) आते हैं (सोमशितः) ओषधिरस से तीक्ष्ण हुए-ओषधिरस को साथ लेकर वायुएँ (अयास्यः) मुख्य वायुः-पुरोवात (अङ्गिरसः) प्रशान्त पृथिवीवायुएँ (नवग्वाः) नव गतिवाली-सरलगतिवाले (ते) वे सब गतिप्रेरक वायुएँ आकर (एतं-गोनाम् ऊर्वम्) इस रश्मियों जलों के आच्छादक को (वि भजन्त) विभक्त छिन्न-भिन्न कर देती हैं (पणयः) हे पणियों वणिजों की भाँति जलों के छिपानेवाले मेघों ! (एतत्-वचः) यह तुम्हारा वचन (वमन्-इत्) वमन जैसा होगा, तुम्हें स्वीकार करना पड़ेगा ॥८॥ आध्यात्मिकयोजना−हे विषयव्यवहार में प्रवृत्त इन्द्रिय प्राणों ! इस शरीर में न केवल मैं चेतना ही आई हूँ, किन्तु सोम्य ओषधियों के भोजन से उत्तेजित प्राणापानादि तीक्ष्ण प्राण और मुख्य प्राण हृदयस्थ तथा अन्य प्राण देवदत्त धनञ्जय आदि रसवाहक नवगतिवाले प्राण वे सब गतिप्रेरक आते हैं, वे नाड़ियों के जन्म से प्राप्त प्रतिबन्धक को विभक्त कर देंगे, पुनः विषयग्रहण वमन की भाँति ॥८॥
भावार्थभाषाः - मेघों में घिरे जलों को पुरुवात तथा पृथ्वी की वायुएँ ओषधिरस लेकर ऊपर आकाश में जाती हैं, तो मेघों के प्रतिबन्धक को छिन्न-भिन्न कर देती हैं, नीचे जल बरसने लगते हैं ॥८॥