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इन्द्र॑स्य दू॒तीरि॑षि॒ता च॑रामि म॒ह इ॒च्छन्ती॑ पणयो नि॒धीन्व॑: । अ॒ति॒ष्कदो॑ भि॒यसा॒ तन्न॑ आव॒त्तथा॑ र॒साया॑ अतरं॒ पयां॑सि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrasya dūtīr iṣitā carāmi maha icchantī paṇayo nidhīn vaḥ | atiṣkado bhiyasā tan na āvat tathā rasāyā ataram payāṁsi ||

पद पाठ

इन्द्र॑स्य । दू॒तीः । इ॒षि॒ता । च॒रा॒मि॒ । म॒हः । इ॒च्छन्ती॑ । प॒ण॒यः॒ । नि॒ऽधीन् । वः॒ । अ॒ति॒ऽस्कदः॑ । भि॒यसा॑ । तम् । नः॒ । आ॒व॒त् । तथा॑ । र॒सायाः॑ । अ॒त॒र॒म् । पयां॑सि ॥ १०.१०८.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:108» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:9» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पणयः) हे गोरक्षक वणिजों की भाँति रश्मियों के रक्षक ! (इन्द्रस्य दूतीः) विद्युद्देव की संदेशवाहिका (इषिता) उससे प्रेरित हुई (वः-महः-निधीन्) तुम्हारे अधीन स्थित भारी गोनिधियों-रश्मिनिधियों-जलनिधियों को (इच्छन्ती) चाहती हुई (चरामि) विचरण करती हूँ (अतिस्कदः-भियसा) अत्याक्रमणशील के भय से विचरती हूँ (तत्-नः-आवत्) वह इन्द्र मुझे भलीभाँति रक्षित करता है (तथा रसायाः) तथा नदी के-मेघधारा के (पयांसि-अतरम्) जलों को तरती है ॥२॥ आध्यात्मिकयोजना−हे वणिजों जैसे इस लोक में गन्ध आदि व्यवहारसाधक प्राणों ! ऐश्वर्यवान् परमात्मा की दूती जैसी प्रेरिता मैं चेतना तुम्हारे गन्ध आदि ग्रहण प्रवृत्तिरूप महानिधियों को चाहती हुई उस व्यापक गतिकर्ता के-भय से विचरती हूँ, वह परमात्मा मेरी रक्षा करता है, नदी के समान अस्थिर-देह के रसरक्त आदि जलरूपों को पार करती हूँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - मेघों की गर्जना विद्युद्देव के द्वारा प्रेरित हुई मेघधारा को चीरती हुई चलती है, मेघों के अन्दर वर्तमान सूर्य की रश्मियों में साथ में जल छिपे रहते हैं, उसके बाहर निकल जाने के लिये गर्जना होती है ॥२॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - सरमोक्तिः (पणयः) हे गोरक्षका वणिज-इव रश्मीनां गोपयितारः ! “पणयो देवानां गोरक्षकाः” [जै० २।४४०] “पणिनैव गोपालेन वणिग्जनेनेव” [ऋ० १।३२।११ दयानन्दः] (इन्द्रस्य दूतीः-इषिता) विद्युद्देवस्य दूती “सोरलोपश्छान्दसः” सन्देशवाहिका तेन प्रेरिता (वः-महः-निधीन्-इच्छन्ती-चरामि) युष्माकमधीने स्थितां महतो निधीन् गोनिधीन्, रश्मिनिधीन्, जलनिधीन् वा इच्छन्ती विचरामि (अतिस्कदः-भियसा) अतिस्कन्दनशीलस्य-अत्याक्रमणशीलस्य भीत्या चरामीति सम्बन्धः (तत्-नः-आवत्) तत्-स इन्द्रो मां रक्षति “अस्मदो द्वयोश्च” [अष्टा० १।२।५९] बहुवचनं (तथा रसायाः पयांसि-अतरम्) तथा कृत्वा तत्साहाय्येन मेघधाराया जलानि तरामि सर्वत्र विचरामि ॥२॥ आध्यात्मिकयोजना-हे पणय इह लोके गन्धादिग्रहणव्यवहार-साधकाः-इन्द्रियप्राणाः-ऐश्वर्यवतः परमात्मनो दूतीव प्रेरिताऽहं युष्माकं गन्धादिग्रहणप्रवृत्तिरूपान् महानिधीनिच्छन्ती तस्य व्यापनगतिकर्तुर्भीत्या विचरामि स परमात्मा मां रक्षति तथा कृत्वैव नदीवदस्थिरायास्तन्वाः पयांसि रसरक्तादीनि पारयामि ॥२॥