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आ॒पी वो॑ अ॒स्मे पि॒तरे॑व पु॒त्रोग्रेव॑ रु॒चा नृ॒पती॑व तु॒र्यै । इर्ये॑व पु॒ष्ट्यै कि॒रणे॑व भु॒ज्यै श्रु॑ष्टी॒वाने॑व॒ हव॒मा ग॑मिष्टम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āpī vo asme pitareva putrogreva rucā nṛpatīva turyai | iryeva puṣṭyai kiraṇeva bhujyai śruṣṭīvāneva havam ā gamiṣṭam ||

पद पाठ

आ॒पी इति॑ । वः॒ । अ॒स्मे इति॑ । पि॒तरा॑ऽइव । पु॒त्रा । उ॒ग्राऽइ॑व । रु॒चा । नृ॒पती॑ इ॒वेति॑ नृ॒पती॑ऽइव । तु॒र्यै । इर्या॑ऽइव । पु॒ष्ट्यै । कि॒रणा॑ऽइव । भु॒ज्यै । श्रु॒ष्टी॒वाना॑ऽइव । हव॑म् । आ । ग॒मि॒ष्ट॒म् ॥ १०.१०६.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:106» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:1» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:9» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वः) तुम दोनों द्युलोक पृथिवीलोक (अस्मे) हमारे (आपी) कार्यसाधक सम्बन्धी (पितरा-इव) माता पिताओं के समान अन्नरस के देनेवाले हो (उग्रा) तेजस्वी (रुचा) प्रकाशमान सूर्य और चन्द्रमा (पुत्रा-इव) पुत्रसमान प्रियकारी हो (तुर्यै नृपती-इव) हे शीघ्र सिद्धि के लिए दिन रात मनुष्यों के नेता राजा-रानी की भाँति हो (इर्या-इव) प्राण, अपान तुम दोनों अन्नवाले जैसे (पुष्ट्यै) पुष्टि के लिए हो (किरणा-इव भुज्यै) हे सभापति और सेनापति ! तुम दोनों शुक्लभा कृष्णभा किरणों की भाँति पालन क्रिया के लिए हो (श्रुष्टीवाना-इव) शीघ्र मार्गव्यापी घोड़ोंवाले जैसे ऋत्विक् और पुरोहित (हवम्-आगमिष्टम्) होमे जाते हुए यज्ञ के प्रति आते हो ॥४॥
भावार्थभाषाः - द्युलोक पृथिवलोक माता पिता के समान अन्न भोजनरस भोजन देनेवाले हैं, उनसे ऐसा लाभ लेना चाहिये, सूर्य और चन्द्रमा पुत्र के समान रक्षक और प्रियकारी हैं, उनसे लाभ लेना चाहिये, दिन-रात राजा-रानी के समान इष्ट सिद्धि करनेवाले हैं, उनसे लाभ लेना चाहिये, प्राण-अपान जीवन पुष्टि देनेवाले हैं, अन्न के आधार पर अच्छा पौष्टिक भोजन करना चाहिये, सभापति और सेनापति सेना प्रजा का पालन करनेवाले होते हैं शुक्लभा और कृष्णभा किरणों के समान, उनसे लाभ लेना चाहिये अनुकूल आचरण करके, शीघ्र मार्गव्यापन करनेवाले घोड़ों के समान ऋत्विक् व पुरोहित हैं यज्ञ करनेवाले इनसे लाभ लेना चाहिये यज्ञ में बुलाकर ॥४॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वः) युवां हे द्यावापृथिव्यौ ! (अस्मे) अस्माकं (आपी) सम्बन्धिनौ (पितरा-इव) मातापितरौ-इव अन्नरसदातारौ स्थः (उग्रा रुचा पुत्रा इव) तेजस्विनौ प्रकाशमानौ सूर्याचन्द्रमसौ पुत्राविव प्रियकारिणौ स्थः (तुर्यै-नृपती-इव) हे अहोरात्रौ शीघ्रकार्यसिद्ध्यै नराणां नेता राजराज्ञौ इव स्थः (इर्या-इव पुष्ट्यै) हे प्राणापानौ ! युवाम्-अन्नवन्तौ-इव “इरा अन्ननाम” [निघ० २।७] पुष्ट्यै स्थः (किरणा-इव-भुज्यै) हे सभासेनेशौ ! युवां शुक्लभाःकृष्णभारूपकिरणौ-इव-भुक्त्यै-पालनक्रियायै स्थः (श्रुष्टीवाना-इव हवम्-आगमिष्टाम्) शु-अष्टि क्षिप्रव्याप्तिमदश्ववन्तौ-इवाध्वर्यू खल्वृत्विक्पुरोहितौ हूयमानं यज्ञमागच्छथः ॥४॥