पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रिये ! यद्यपि यह सम्भव है कि प्रजापति देव (अस्मै) इस जामिरूप अर्थात् हमारे संयोग में रुकावट डालनेवाले पृथिवीलोक को (दशस्येत्) सूक्ष्म बनाकर हमारे बीच में से अलग कर दे। वह इस प्रकार कि (रात्रीभिः) रात्रिगण से (अहभिः) अहगर्ण से, अर्थात् अहोरात्रगण से इस पृथिविलोक के स्थितिसमय को समाप्त करके पृथक् कर दे, तब हम दोनों का सङ्गम होना सम्भव है, क्योंकि यह स्थितिसमय कालगणना से समाप्त हो सकता है और वह कालगणना रात्रिगण और अहर्गण से हो सकती है। अब वह अहोरात्र अर्थात् दिन-रात की अधिक संख्या किस प्रकार होनी सम्भव है, सो सुन, हे रात्रे ! यद्यपि मैं भी पृथिवी के ऊपर अकेला हूँ और आप भी पृथिवी के नीचे अकेली हैं, तथापि हम दोनों की संख्या अधिक हो सकती है। वह ऐसे कि (सूर्यस्य) सूर्यदेव की (चक्षुः) दर्शनरश्मि (मुहुः) बारम्बार (उन्मिमीयात्) उगाली ले, लोकदृष्टि से प्रकट हो, जिससे लोग सूर्यप्रकाश के दर्शन से दिन-रात की गणना करते जावें, तब (दिवा पृथिव्या) द्यावापृथिवी के समान (मिथुना) मिथुन (सबन्धू) समानाङ्ग-एकाङ्ग-सङ्गत हो जावें, (यमीः) यमी आप रात्रि (यमस्य) मुझ दिन के (अजामि) व्यवधायाकाभावता-बिना रुकावट के संयोग को (बिभृयात्) धारण कर सकें ॥९॥
भावार्थभाषाः - पृथिवी आदि पिण्ड बहुत दिन-रातों-अहर्गणों के पश्चात् घिस-घिसकर परमाणु बनकर हीन हो जाते हैं। गृहस्थ जनों के लिये इस मन्त्र में उपदेश है कि विवाहित स्त्री-पुरुष संकट आने पर परस्पर सहयोग करें। एक दूसरे का व्यवहार आपस में स्नेहपूर्ण और सहयोग की भावना से युक्त हो ॥९॥