पदार्थान्वयभाषाः - हे रात्रि ! जो तुझ विलाप करती हुई ने कहा है कि ‘बृहन्मित्रस्य वरुणस्य धाम कदु ब्रवः=मित्र और वरुण हमारे पितृस्थान दूर हैं, कौन वहाँ हमारे दुःख को सुनावे’ यद्यपि मित्र और वरुण के उस दूर धाम को जानेवाले भी हैं तो सही, (ये) जो (इह) यहाँ अन्तरिक्ष में (चरन्ति) चलते हुये दीखते हैं, प्रत्युत वे (देवानाम्) सूर्यादि देवों के (स्पशः) स्पर्श करनेवाले अर्थात् नक्षत्र जो प्रवहनामक वायुमार्ग में वर्त्तमान, सूर्यादि देवों को स्पर्श करते हैं, ऐसे स्वभाववाले वे यात्री बनकर सूर्यादि देवों के प्रति जाते हैं और एक देव का दूसरे देव के पास वृत्तान्त पहुँचाते हुए हरकारों के समान हैं, (एते) ये (न तिष्ठन्ति) न विराम करते हैं (न निमिषन्ति) न ही मार्ग को छोड़कर इधर-उधर उन्मार्ग में चेष्टा करते हैं, तब हे रात्रि ! हम दोनों के दुःखमय वृत्तान्त को कौन ले जावे और कौन दुःख का सन्देश हम दोनों के पितृकुलों में सुनावे अथवा कौन हमें दुःख से छुडावें, अहो ! (आहनः) हे हृदयपीडिके ! यह तो असाध्य दुःख है, इसलिये (मत्) मुझ से भिन्न (अन्येन) जो कोई अन्य पुरुष तुझे दिखलाई पड़े, उसके साथ (तूयम्) शीघ्र (याहि) तू समागम को प्राप्त हो (तेन) उसी के साथ (विवृह) गार्हस्थ्यभार को उठा और (रथ्येव चक्रा) रथ के पहियों के समान वहन कर ॥८॥
भावार्थभाषाः - ग्रह-तारे आकाश में सदैव गतिशील रहते हैं, सूर्य के द्वारा उन्हें ज्योति प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त इस मन्त्र से यह भी स्पष्ट है कि सन्तानोत्पादन में असमर्थ पति द्वारा पत्नी को नियोग की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर यदि वह ब्रह्मचारिणी रहना चाहे, तो रह सकती है, सन्तानप्राप्ति की इच्छा हो, तो नियोग करे ॥८॥ समीक्षा (सायणभाष्य)-‘ये स्पशोऽहोरात्रादयश्चाराश्चरन्ति” यहाँ यम-यमी को सायण दिन-रात नहीं समझता है, किन्तु मन्त्र १० में “अहोरात्रयोरस्मै यमाय कल्पितं भागम्” में यम का सम्बन्ध दिन-रात से वर्णित किया है। यह पारस्परिक विरोध है ॥८॥