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उ॒रु ते॒ ज्रय॒: पर्ये॑ति बु॒ध्नं वि॒रोच॑मानं महि॒षस्य॒ धाम॑। विश्वे॑भिरग्ने॒ स्वय॑शोभिरि॒द्धोऽद॑ब्धेभिः पा॒युभि॑: पाह्य॒स्मान् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uru te jrayaḥ pary eti budhnaṁ virocamānam mahiṣasya dhāma | viśvebhir agne svayaśobhir iddho dabdhebhiḥ pāyubhiḥ pāhy asmān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒रु। ते॒। ज्रयः॑। परि॑। ए॒ति॒। बु॒ध्नम्। वि॒ऽरोच॑मानम्। म॒हि॒षस्य॑। धाम॑। विश्वे॑भिः। अ॒ग्ने॒। स्वय॑शःऽभिः। इ॒द्धः। अद॑ब्धेभिः। पा॒युऽभिः॑। पा॒हि॒। अ॒स्मान् ॥ १.९५.९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:95» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:2» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उस समय के सेवन करने से क्या होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् ! (ते) आपके सम्बन्ध से जैसे सूर्य्य वैसे (इद्धः) प्रकाशमान हुआ समय (विश्वेभिः) समस्त (स्वयशोभिः) अपने प्रशंसित गुण, कर्म और स्वभावों से (अदब्धेभिः) वा किसी से न मिट सकें ऐसे (पायुभिः) अनेक प्रकार के रक्षा आदि व्यवहारों से युक्त (विरोचमानम्) विविध प्रकार से प्रकाशमान (बुध्नम्) प्रथम कहे हुए अन्तरिक्ष को (उरु) वा बहुत (ज्रयः) जिससे आयुर्दा व्यतीत करते हैं उत वृत्त को वा (अस्मान्) हम लोगों को और (महिषस्य) बड़े लोक के (धाम) स्थानान्तर को (पर्येति) पर्य्याय से प्राप्त होता है वैसे हमारी (पाहि) रक्षा कर और उसकी सेवा कर ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को यह जानना चाहिये कि समय के विना सूर्य्य आदि कार्य्य जगत् का बार-बार वर्त्ताव नहीं होता और न उससे अलग हम लोगों का कुछ भी काम अच्छी प्रकार होता है ॥ ९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तेन किं भवतीत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे अग्ने विद्वंस्ते तव संबन्धेन सूर्य्यइवेद्धः सन् कालो विश्वेभिः स्वयशोभिरदब्धेभिः पायुभिर्युक्तं विरोचमानं बुध्नमुरु ज्रयोऽस्मान् महिषस्य धाम च पर्य्येति तथास्मान् पाहि सेवस्व च ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उरु) बहु (ते) तव (ज्रयः) ज्रयन्त्यभिभवन्त्यायुर्येन तत् (परि) (एति) पर्य्यायेण प्राप्नोति (बुध्नम्) उक्तपूर्वम् (विरोचमानम्) विविधदीप्तियुक्तम् (महिषस्य) महतो लोकसमूहस्य। महिष इति महन्नाम०। निघं० ३। ३। (धाम) अधिकरणम् (विश्वेभिः) सर्वैः (अग्ने) विद्वन् (स्वयशोभिः) स्वगुणस्वभावकीर्त्तिभिः (इद्धः) प्रदीप्तः (अदब्धेभिः) केनापि हिंसितुमशक्यैः (पायुभिः) अनेकविधै रक्षणैः (पाहि) (अस्मान्) ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्नहि विभुना कालेन विना सूर्यादिकार्यजगतः पुनः पुनर्वर्त्तमानं जायते न च तस्मात्पृथगस्माकं किंचिदपि कर्म संभवतीति विज्ञातव्यम् ॥ ९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी हे जाणले पाहिजे की, काळाशिवाय सूर्य इत्यादी कार्यजगताचा वारंवार प्रादुर्भाव होत नाही व त्याशिवाय आमचे कोणतेही काम चांगल्या प्रकारे पार पडू शकत नाही. ॥ ९ ॥