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आ॒विष्ट्यो॑ वर्धते॒ चारु॑रासु जि॒ह्माना॑मू॒र्ध्वः स्वय॑शा उ॒पस्थे॑। उ॒भे त्वष्टु॑र्बिभ्यतु॒र्जाय॑मानात्प्रती॒ची सिं॒हं प्रति॑ जोषयेते ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āviṣṭyo vardhate cārur āsu jihmānām ūrdhvaḥ svayaśā upasthe | ubhe tvaṣṭur bibhyatur jāyamānāt pratīcī siṁham prati joṣayete ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒विःऽत्यः॑। व॒र्ध॒ते॒। चारुः॑। आ॒सु॒। जि॒ह्माना॑म्। ऊ॒र्ध्वः। स्वऽय॑शाः। उ॒पऽस्थे॑। उ॒भे इति॑। त्वष्टुः॑। बि॒भ्य॒तुः॒। जाय॑मानात्। प्र॒ती॒ची इति॑। सिं॒हम्। प्रति॑। जो॒ष॒ये॒ते॒ इति॑ ॥ १.९५.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:95» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम जिस (जायमानात्) प्रसिद्ध (त्वष्टुः) छेदन करने अर्थात् सबकी अवधि को पूरी करनेहारे समय से (उभे) दोनों रात्रि और दिन (बिभ्यतुः) सबको डरपाते हैं वा जिससे (प्रतीची) पछांह की दिशा प्रकट होती है वा उक्त रात्रि-दिन सब व्यवहारों का (प्रति, जोषयेते) सेवन तथा जो समय (उपस्थे) काम करनेवालों के समीप (स्वयशाः) अपनी कीर्त्ति अर्थात् प्रशंसा को प्राप्त होता वा (जिह्मानाम्) कुटिलों से (ऊर्ध्वः) ऊपर-ऊपर अर्थात् उनके शुभकर्म में नहीं व्यतीत होता (आसु) इन दिशा वा प्रजाजनों में (चारुः) सुन्दर (आविष्ट्यः) प्रकट हुए व्यवहारों में प्रसिद्ध (वर्धते) और उन्नति को पाता है, उस (सिंहम्) हम तुम सबको काटनेहारे समय को तुम लोग यथावत् जानो ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को यह जानना चाहिये कि संसार की उत्पत्ति के समय से जो उत्पन्न हुआ अग्नि है वह छेदन गुण से ऊर्ध्वगामी अर्थात् जिसकी लपट ऊपर को जाती और काष्ठ आदि पदार्थों में अपनी व्याप्ति से बढ़ता और सूर्यरूप से दिशाओं का बोध करानेवाला है, वह भी सब समय से उत्पन्न होकर समय पाकर ही नष्ट होता है ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे मनुष्या यस्माज्जायमानात्त्वष्टुरुभे बिभ्यतुर्यस्मात्प्रतीची जायते सर्वान् व्यवहारान् प्रति जोषयेते। य उपस्थे स्वयशा जिह्मानामूर्ध्व आसु चारुराविष्ट्यो वर्धते तं सिंहं हिंसकमग्निं यूयं यथावद्विजानीत ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आविष्ट्यः) आविर्भूतेषु व्यवहारेषु प्रसिद्धः (वर्धते) (चारुः) सुन्दरः (आसु) दिक्षु प्रजासु वा (जिह्मानाम्) कुटिलानां सकाशात् (ऊर्ध्वः) उपरिस्थ (स्वयशाः) स्वकीयकीर्त्तिः (उपस्थे) कर्तॄणां समीपस्थे देशे (उभे) रात्रिदिवसौ (त्वष्टुः) छेदकात्कालात् (बिभ्यतुः) भीषयेते। अत्र लडर्थे लिडन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (जायमानात्) प्रसिद्धात् (प्रतीची) पश्चिमा दिक् (सिंहम्) हिंसकम् (प्रति) (जोषयेते) सर्वान्सेवयतः ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यः सृष्ट्युत्पत्तिसमयाज्जातोऽग्निश्छेदकत्वादूर्ध्वगामी काष्ठादिष्वाविष्टतया वर्धमानः सूर्य्यरूपेण दिग्बोधकोऽस्ति सोऽपि कालादुत्पद्य कालेन विनश्यतीति वेद्यम् ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी हे जाणले पाहिजे की जगाच्या उत्पत्तीच्या काळापासून जो उत्पन्न झालेला अग्नी आहे, त्याच्यात छेदन गुण असल्यामुळे ऊर्ध्वगामी आहे. अर्थात् ज्याची ज्वाला वर जाते व काष्ठ इत्यादी पदार्थांत तो आपल्या व्याप्तीने वाढतो व सूर्यरूपाने दिशांचा बोध करविणारा असतो. तोही काळाद्वारे उत्पन्न होऊन काळाच्या योगे नष्ट होतो. ॥ ५ ॥