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त्वम॑ध्व॒र्युरु॒त होता॑सि पू॒र्व्यः प्र॑शा॒स्ता पोता॑ ज॒नुषा॑ पु॒रोहि॑तः। विश्वा॑ वि॒द्वाँ आर्त्वि॑ज्या धीर पुष्य॒स्यग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam adhvaryur uta hotāsi pūrvyaḥ praśāstā potā januṣā purohitaḥ | viśvā vidvām̐ ārtvijyā dhīra puṣyasy agne sakhye mā riṣāmā vayaṁ tava ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। अ॒ध्व॒र्युः। उ॒त। होता॑। अ॒सि॒। पू॒र्व्यः। प्र॒ऽशा॒स्ता। पोता॑। ज॒नुषा॑। पु॒रःऽहि॑तः। विश्वा॑। वि॒द्वान्। आर्त्वि॑ज्या। धी॒र॒। पु॒ष्य॒सि॒। अग्ने॑। स॒ख्ये। मा। रि॒षा॒म॒। व॒यम्। तव॑ ॥ १.९४.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:94» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:31» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे ईश्वर और सभाध्यक्ष कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (धीर) धारणा आदि गुणयुक्त (अग्ने) उत्तम ज्ञान देनेवाले परमेश्वर वा सभाध्यक्ष ! जिस कारण (पूर्व्यः) पिछले महाशयों के किये और चाहे हुए (अध्वर्युः) यज्ञ के यथोक्त व्यवहार से युक्त करने, वर्त्तने और चाहने (होता) देने-लेने (प्रशास्ता) धर्म, उत्तम शिक्षा और उपदेश का प्रचार करने (पोता) पवित्र और दूसरों को पवित्र करने (पुरोहितः) हित प्रसिद्ध करने और (विद्वान्) यथावत् जाननेहारे (त्वम्) आप (असि) हैं (उत) और (जनुषा) उत्पन्न हुए जगत् के साथ (विश्वा) समग्र (आर्त्विज्या) ऋत्विजों के गुणप्रकाशक कामों को (पुष्यसि) दृढ़ करते-कराते हैं, इससे (तव) आपके (सख्ये) मित्रपन में (वयम्) हम लोग (मा, रिषाम) दुःखी कभी न होवें ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सबके अधिष्ठाता जगदीश्वर वा विद्वानों के विना जगत् के पालने आदि व्यवहारों के होने का संभव नहीं होता, इससे मनुष्यों को चाहिये कि दिन-रात ईश्वर की उपासना और इन विद्वानों का सङ्ग करके सुखी हों ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे धीराग्ने यतः पूर्व्योऽध्वर्युर्होता प्रशास्ता पोता पुरोहितो विद्वांस्त्वमस्युतापि जनुषा विश्वार्त्विज्या पुष्यसि तस्मात्तव सख्ये वयं मा रिषाम ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (अध्वर्युः) अध्वरस्य योजको नेता कामयिता वा। आत्राध्वरशब्दोपपदाद्युजधातोर्बाहुलकात् क्युः प्रत्ययष्टिलोपश्च। ‘अध्वर्युरध्वरयुरध्वरं युनक्त्यध्वरस्य नेताऽध्वरं कामयत इति वाऽपि बाधीयाने युरुपबन्धोऽध्वर इति यज्ञनाम ध्वर इति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधो निपात इत्येके’ निरु० १। ८। (उत) अपि (होता) दाता खल्वादाता (असि) (पूर्व्यः) पूर्वैः कृत इष्टः (प्रशास्ता) धर्मसुशिक्षोपदेशप्रचारकः (पोता) पवित्रः पवित्रकर्त्ता (जनुषा) जातेन जगता सह (पुरोहितः) हितप्रसाधकः (विश्वा) समग्राणि (विद्वान्) यो वेत्ति सः (आर्त्विज्या) ऋत्विजां गुणप्रकाशकानि कर्माणि (धीर) धारणादिगुणयुक्त (पुष्यसि) पोषयसि वा (अग्ने) (सख्ये०) (इति पूर्ववत्) ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। नहि सर्वाधिष्ठात्रा जगदीश्वरेण विद्वद्भिर्वा विना जगतः पालनादीनि संभवन्ति तस्माज्जनैस्तस्याहर्निशमुपासनमेतेषां सङ्गं च कृत्वा सुखयितव्यम् ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. सर्वांचा अधिष्ठाता जगदीश्वर किंवा विद्वान यांच्याशिवाय जगाचे पालन इत्यादी व्यवहार चालणे अशक्य आहे. त्यासाठी माणसांनी दिवस-रात्र ईश्वराची उपासना व विद्वानांची संगती करून सुखी व्हावे. ॥ ६ ॥