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अग्नी॑षोमावि॒मं सु मे॑ शृणु॒तं वृ॑षणा॒ हव॑म्। प्रति॑ सू॒क्तानि॑ हर्यतं॒ भव॑तं दा॒शुषे॒ मय॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnīṣomāv imaṁ su me śṛṇutaṁ vṛṣaṇā havam | prati sūktāni haryatam bhavataṁ dāśuṣe mayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्नी॑षोमौ। इ॒मम्। सु। मे॒। शृ॒णु॒तम्। वृ॒ष॒णा॒। हव॑म्। प्रति॑। सु॒ऽउ॒क्तानि॑। ह॒र्य॒त॒म्। भव॑तम्। दा॒शुषे॑। मयः॑ ॥ १.९३.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:93» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:28» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तिरानवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में पढ़ाने और परीक्षा लेनेवालों के प्रति विद्यार्थी लोग क्या-क्या कहें, यह विषय कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृषणा) विद्या और उत्तम शिक्षा देनेवाले (अग्नीषोमौ) अग्नि और चन्द्र के समान विशेष ज्ञान और शान्ति गुणयुक्त पढ़ाने और परीक्षा लेनेवाले विद्वानो ! तुम दोनों (मे) मेरा (प्रतिसूक्तानि) जिनमें अच्छे-अच्छे अर्थ उच्चारण किये जाते हैं, उन गायत्री आदि छन्दों से युक्त वेदस्थ सूक्तों और (इमम्) इस (हवम्) ग्रहण करने-कराने योग्य विद्या के शब्द अर्थ और सम्बन्धयुक्त वचन को (सुशृणुतम्) अच्छे प्रकार सुनो (दाशुषे) और पढ़ने में चित्त देनवाले मुझ विद्यार्थी के लिये (मयः) सुख की (हर्य्यतम्) कामना करो, इसप्रकार विद्या के प्रकाशक (भवतम्) हूजिये ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - किसी मनुष्य को पढ़ाने और परीक्षा के विना विद्या की सिद्धि नहीं होती और कोई मनुष्य पूरी विद्या के विना किसी दूसरे को पढ़ा और उसकी परीक्षा नहीं कर सकता और इस विद्या के विना समस्त सुख नहीं होते, इससे इसका सम्पादन नित्य करें ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाऽध्यापकपरीक्षकौ प्रति विद्यार्थिभिर्वक्तव्यमुपदिश्यते ।

अन्वय:

हे वृषणावग्नीषोमौ युवां मे प्रतिसूक्तानीमं हवं सुशृणुतं दाशुषे मह्यं मयो हर्य्यतमेवं विद्याप्रकाशकौ भवतम् ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्नीषोमौ) तेजश्चन्द्राविव विज्ञानसोम्यगुणावध्यापकपरीक्षकौ (इमम्) अध्ययनजन्यं शास्त्रबोधम् (सु) (मे) मम (शृणुतम्) (वृषणा) विद्यासुशिक्षावर्षकौ (हवम्) देयं ग्राह्यं विद्याशब्दार्थसम्बन्धमयं वाक्यम् (प्रति) (सूक्तानि) सुष्ठ्वर्था उच्यन्ते येषु गायत्र्यादिछन्दोयुक्तेषु वेदस्थेषु तानि (हर्य्यतम्) कामयेथाम् (भवतम्) (दाशुषे) अध्ययने चित्तं दत्तवते विद्यार्थिने (मयः) सुखम् ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - नहि कस्यापि मनुष्यास्याध्यापनेन परीक्षया च विना विद्यासिद्धिर्जायते नहि पूर्णविद्याया विनाऽध्यापनं परीक्षां च कर्त्तुं शक्नोति। नह्येतया विना सर्वाणि सुखानि जायन्ते तस्मादेतन्नित्यमनुष्ठेयम् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात वायू व विद्युतचे गुणवर्णन करण्याने या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - कोणत्याही माणसाला अध्यापनाखेरीज व परीक्षेखेरीज विद्येची सिद्धी होत नाही व कोणताही माणूस पूर्ण विद्येशिवाय अध्यापन करू शकत नाही व दुसऱ्याची परीक्षा घेऊ शकत नाही व या विद्येशिवाय संपूर्ण सुख मिळू शकत नाही. त्यामुळे त्याचे अनुष्ठान नित्य करावे. ॥ १ ॥