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अता॑रिष्म॒ तम॑सस्पा॒रम॒स्योषा उ॒च्छन्ती॑ व॒युना॑ कृणोति। श्रि॒ये छन्दो॒ न स्म॑यते विभा॒ती सु॒प्रती॑का सौमन॒साया॑जीगः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

atāriṣma tamasas pāram asyoṣā ucchantī vayunā kṛṇoti | śriye chando na smayate vibhātī supratīkā saumanasāyājīgaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अता॑रिष्म। तम॑सः। पा॒रम्। अ॒स्य। उ॒षाः। उ॒च्छन्ती॑। व॒युना॑। कृ॒णो॒ति॒। श्रि॒ये। छन्दः॑। न। स्म॒य॒ते॒। वि॒ऽभा॒ती। सु॒ऽप्रती॑का। सौ॒म॒न॒साय॑। अ॒जी॒ग॒रिति॑ ॥ १.९२.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:92» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:25» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसी है और इससे जीव क्या करता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (श्रिये) विद्या और राज्य की प्राप्ति के लिये (छन्दः) वेदों के (न) समान (उच्छन्ती) अन्धकार को दूर करती और (विभाती) विविध प्रकार के मूर्त्तिमान् पदार्थों को प्रकाशित और (सुप्रतीका) पदार्थों की प्रतीति कराती है वह (उषाः) प्रातःकाल की वेला सब (सौमनसाय) धार्मिक जनों के मनोरञ्जन के लिये (वयुनानि) प्रशंसनीय वा मनोहर कामों को (कृणोति) कराती (अजीगः) अन्धकार को निगल जाती और (स्मयते) आनन्द देती है, उससे (अस्य) इस (तमसः) अन्धकार के (पारम्) पार को प्राप्त होते हैं, वैसे दुःख के परे आनन्द को हम (अतारिष्म) प्राप्त होते हैं ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जैसे यह उषा प्रातःकाल की वेला कर्म, ज्ञान, आनन्द, पुरुषार्थ, धनप्राप्ति के द्वारा दुःखरूपी अन्धकार के निवारण का निदान है, वैसे इस वेला में उत्तम पुरुषार्थ से प्रयत्न में स्थित होके सुख की बढ़ती और दुःख का नाश करें ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सा कीदृश्यनया जीवः किं करोतीत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

या श्रिये छन्दो नेवोच्छन्ती बिभाती सुप्रतीकोषा सर्वेषां सौमनसाय वयुनानि कृणोत्यन्धकारमजीगः स्मयते तयास्य तमसः पारमतारिष्म ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अतारिष्म) संतरेम प्लवेमहि वा (तमसः) अन्धकारस्येव दुःखस्य (पारम्) परभागम् (अस्य) प्रत्यक्षस्य (उषाः) (उच्छन्ती) विवासयन्ती दूरीकुर्वन्ती (वयुना) वयुनानी प्रशस्यानि कमनीयानि वा कर्माणि (कृणोति) कारयति (श्रिये) विद्याराज्यलक्ष्मीप्राप्तये (छन्दः) (न) इव (स्मयते) आनन्दयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (बिभाती) विविधानि मूर्त्तद्रव्याणि प्रकाशयन्ती (सुप्रतीका) शोभनानि प्रतीकानि यस्याः सा (सौमनसाय) धर्मे सुष्ठु प्रवृत्तमनस आह्लादनाय (अजीगः) अन्धकारं निगिलति। गॄ निगरणे इत्यस्माद् बहुलं छन्दसीति शपः स्थाने श्लुः। तुजादीनामिति दीर्घश्च ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथेयमुषाः कर्मज्ञानानन्दपुरुषार्थधनप्राप्तिमिव दुःखस्य पारमन्धकारनिवारणहेतुरस्ति तथाऽस्यां सुपुरुषार्थेन प्रयत्नमास्थाय सुखोन्नतिर्दुःखहानिश्च कार्य्या ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी ही उषा प्रातःकाळची वेळ कर्म, ज्ञान, आनंद, पुरुषार्थ, धनप्राप्तीद्वारे दुःखरूपी अंधकाराचे निवारण करण्याचे निदान आहे. तसे यावेळी उत्तम पुरुषार्थाने प्रयत्नात स्थित होऊन माणसांनी सुखाची वृद्धी व दुःखाचा नाश करावा. ॥ ६ ॥