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देवता: उषाः ऋषि: गोतमो राहूगणः छन्द: उष्णिक् स्वर: ऋषभः

एह दे॒वा म॑यो॒भुवा॑ द॒स्रा हिर॑ण्यवर्तनी। उ॒ष॒र्बुधो॑ वहन्तु॒ सोम॑पीतये ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

eha devā mayobhuvā dasrā hiraṇyavartanī | uṣarbudho vahantu somapītaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। इ॒ह। दे॒वा। म॒यः॒ऽभुवा॑। द॒स्रा। हिर॑ण्यवर्तनी॒ इति॒ हिर॑ण्यऽवर्तनी। उ॒षः॒ऽबुधः॑। व॒ह॒न्तु॒। सोम॑ऽपीतये ॥ १.९२.१८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:92» मन्त्र:18 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:27» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:18


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे अग्नि और पवन कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोग जो (देवा) दिव्यगुणयुक्त (मयोभुवा) सुख की भावना करानेहारे (हिरण्यवर्त्तनी) प्रकाश के वर्त्ताव को रखते और (दस्रा) विद्या के उपयोग को प्राप्त हुए समस्त दुःख का विनाश करनेवाले अग्नि, पवन (उषर्बुधः) प्रातःकाल की वेला को जतानेहारी सूर्य्य की किरणों को प्रकट करते हैं, उनसे (सोमपीतये) जिस व्यवहार में पुष्टि, शान्त्यादि तथा गुणवाले पदार्थों का पान किया जाता है, उसके लिये सब मनुष्यों को सामर्थ्य (इह) इस संसार में (आवहन्तु) अच्छे प्रकार प्राप्त करावें ॥ १८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि उत्पन्न हुए दिनों में भी अग्नि और पवन के विना पदार्थ भोगना नहीं हो सकता, इससे अग्नि और पवन से उपयोग लेने का पुरुषार्थ नित्य करें ॥ १८ ॥इस सूक्त में उषा और अश्वि पदार्थों के गुणों के वर्णन से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ इस सूक्तार्थ की सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह ९२ बानवाँ सूक्त और २७ सत्ताईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे मनुष्या भवन्तो यौ देवा मयोभुवा हिरण्यवर्त्तनी दस्राश्विनावुषर्बुधो जनयतस्ताभ्यां सोमपीतये सर्वान् सामर्थ्यमिहावहन्तु ॥ १८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (इह) अस्मिन् संसारे (देवा) दिव्यगुणौ (मयोभुवा) सुखं भावयितारौ (दस्रा) विद्योपयोगं प्राप्नुवन्तावशेषदुःखोपक्षयितारौ वाय्वग्नी (हिरण्यवर्त्तनी) हिरण्यं प्रकाशं वर्त्तयन्तौ (उषर्बुधः) य उषःकालं बोधयन्ति तान् किरणान् (वहन्तु) प्रापयन्तु (सोमपीतये) पुष्टिशान्त्यादिगुणयुक्तानां पदार्थानां पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै ॥ १८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्जातेष्वपि दिवसेष्वग्निवायुभ्यां विना पदार्थभोगाः प्राप्तुं न शक्यास्तस्मादेतन्नित्यमनुष्ठेयमिति ॥ १८ ॥अत्रोषोऽश्विगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति द्वानवतितमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - अग्नी व वायूशिवाय पदार्थांचा भोग घेता येऊ शकत नाही. त्यामुळे अग्नी व वायूचा उपयोग करून घेण्याचा पुरुषार्थ माणसांनी सदैव करावा. ॥ १८ ॥