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देवता: उषाः ऋषि: गोतमो राहूगणः छन्द: उष्णिक् स्वर: ऋषभः

अश्वि॑ना व॒र्तिर॒स्मदा गोम॑द्दस्रा॒ हिर॑ण्यवत्। अ॒र्वाग्रथं॒ सम॑नसा॒ नि य॑च्छतम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aśvinā vartir asmad ā gomad dasrā hiraṇyavat | arvāg rathaṁ samanasā ni yacchatam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अश्वि॑ना। व॒र्तिः। अ॒स्मत्। आ। गोऽम॑त्। द॒स्रा॒। हिर॑ण्यऽवत्। अ॒र्वाक्। रथ॑म्। सऽम॑नसा। नि। य॒च्छ॒त॒म् ॥ १.९२.१६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:92» मन्त्र:16 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:27» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उससे क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग जो (दस्रा) कला-कौशलादि निमित्त से दुःख आदि की निवृत्ति करनेहारे (समनसा) एक से विचार के साथ वर्त्तमान के तुल्य (अश्विना) अग्नि, जल (अस्मत्) हम लोगों के (गोमत्) जिसमें इन्द्रियाँ प्रशंसित होतीं वा (हिरण्यवत्) प्रशंसित सुवर्ण आदि पदार्थ वा विद्या आदि गुणों के प्रकाश विद्यमान वा (वर्त्तिः) आने-जाने के काम में वर्त्तमान उस (अर्वाक्) नीचे अर्थात् जल, स्थलों तथा अन्तरिक्ष में (रथम्) रमण करानेवाले विमान आदि रथसमूह को (न्यायच्छतम्) अच्छे प्रकार नियम में रखते हैं, वे उषःकाल से युक्त अग्नि, जल तथा उनसे युक्त उक्त रथसमूह को प्रतिदिन सिद्ध करते हैं, वैसे तुम लोग भी सिद्ध करो ॥ १६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि प्रतिदिन क्रिया और चतुराई तथा अग्नि और जल आदि की उत्तेजना से विमान आदि यानों को सिद्ध करके नित्य उन्नति को प्राप्त होनेवाले धन को प्राप्त होकर सुखयुक्त हों ॥ १६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरश्विभ्यां किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे जनाः ! यथा वयं यौ दस्रा समनसाऽश्विनाऽस्मद् गोमद्धिरण्यवद्वर्त्तिरर्वाग्रथं न्यायच्छतं प्रापयतस्ताभ्यामुषर्युक्ताभ्यां युक्तं रथं प्रतिदिनं साध्नुयाम तथा यूयमपि साध्नुत ॥ १६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) अश्विनावग्निजले (वर्त्तिः) वर्त्तन्ते यस्मिन् गमनागमनकर्मणि तत् (अस्मत्) अस्माकम्। सुपां सुलुगिति षष्ठ्या लुक्। (आ) (गोमत्) प्रशस्ता गावो भवन्ति यस्मिंस्तत् (दस्रा) कलाकौशलादिनिमित्तैर्दुःखोपक्षयितारौ (हिरण्यवत्) प्रशस्तानि हिरण्यादीनि विद्यादीनि वा तेजांसि विद्यन्ते यस्मिंस्तत् (अर्वाक्) अधः (रथम्) भूजलान्तरिक्षेषु रमणसाधनं विमानादियानसमूहम् (समनसा) समानेन मनसा विचारेण सह वर्त्तमानौ (नि) नितराम् (यच्छतम्) यच्छतो यमनं कुरुतः ॥ १६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः प्रतिदिनं क्रियाकौशलाभ्यामग्निजलादीनां सकाशाद्विमानादीनि यानानि साधित्वाऽक्षय्यधनं प्राप्य सुखयितव्यम् ॥ १६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. क्रिया करून चतुराईने व अग्नी आणि जलाच्या साह्याने विमान इत्यादी यानांना सिद्ध करून सदैव उन्नती करणारे धन प्राप्त करून माणसांनी सुखी व्हावे. ॥ १६ ॥