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उष॒स्तच्चि॒त्रमा भ॑रा॒स्मभ्यं॑ वाजिनीवति। येन॑ तो॒कं च॒ तन॑यं च॒ धाम॑हे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uṣas tac citram ā bharāsmabhyaṁ vājinīvati | yena tokaṁ ca tanayaṁ ca dhāmahe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उषः॑। तत्। चि॒त्रम्। आ। भ॒र॒। अ॒स्मभ्य॑म्। वा॒जि॒नी॒ऽव॒ति॒। येन॑। तो॒कम्। च॒। तन॑यम्। च॒। धाम॑हे ॥ १.९२.१३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:92» मन्त्र:13 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:26» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को इससे क्या जानना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सौभाग्यकारिणी स्त्री ! (वाजिनीवति) उत्तम क्रिया और अन्नादि ऐश्वर्य्ययुक्त तू (उषः) प्रभात के तुल्य (अस्मभ्यम्) हमलोगों के लिये (चित्रम्) अद्भुत सुखकर्त्ता धन को (आभर) धारण कर (येन) जिससे हम लोग (तोकम्) पुत्र (च) और इसके पालनार्थ ऐश्वर्य (तनयम्) पौत्रादि (च) स्त्री, भृत्य और भूमि के राज्यादि को (धामहे) धारण करें ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों से प्रातःसमय से लेके समय के विभागों के योग्य अर्थात् समय-समय के अनुसार व्यवहारों को करके ही सब सुख के साधन और सुख किये जा सकते हैं, इससे उनको यह अनुष्ठान नित्य करना चाहिये ॥ १३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैरेतया किं विज्ञातव्यमित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे सुभगे वाजिनीवति त्वमुषरिवास्मभ्यं चित्रं चित्रं धनमाभर येन वयं तोकं च तनयं च धामहे ॥ १३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उषः) उषाः (तत्) (चित्रम्) अद्भुतं सौभाग्यम् (आ) समन्तात् (भर) धर (अस्मभ्यम्) (वाजिनीवति) प्रशस्तक्रियान्नयुक्ते (येन) (तोकम्) पुत्रम् (च) तत्पालनक्षमान् पदार्थान् (तनयम्) पौत्रम् (च) स्त्रीभृत्यपृथिवीराज्यादीन् (धामहे) धरेम। अत्र धाञ्धातोर्लेटि बहुलं छन्दसीति श्लोरभावः। अत्र निरुक्तम्। उषस्तच्चित्रं चायनीयं मंहनीयं धनमाहरास्मभ्यमन्नवति येन पुत्रांश्च पौत्रांश्च दधीमहि। निरु० १२। ६। ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः प्रातःकालमारभ्य कालविभागयोग्यान् व्यवहारान् कृत्वैव सर्वाणि सुखसाधनानि सुखानि च कर्त्तुं शक्यन्ते तस्मादेतन्मनुष्यैर्नित्यमनुष्ठेयम् ॥ १३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्रातःकाळापासून वेळेचे योग्य विभाजन करून अर्थात वेळोवेळी योग्य व्यवहार करून सर्व सुखाची साधने व सुख प्राप्त केले जाते. त्यामुळे माणसांनी हे अनुष्ठान नित्य केले पाहिजे. ॥ १३ ॥