वांछित मन्त्र चुनें

प॒शून्न चि॒त्रा सु॒भगा॑ प्रथा॒ना सिन्धु॒र्न क्षोद॑ उर्वि॒या व्य॑श्वैत्। अमि॑नती॒ दैव्या॑नि व्र॒तानि॒ सूर्य॑स्य चेति र॒श्मिभि॑र्दृशा॒ना ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

paśūn na citrā subhagā prathānā sindhur na kṣoda urviyā vy aśvait | aminatī daivyāni vratāni sūryasya ceti raśmibhir dṛśānā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प॒शून्। न। चि॒त्रा। सु॒ऽभगा॑। प्र॒था॒ना। सिन्धुः॑। न। क्षोदः॑। उ॒र्वि॒या। वि। अ॒श्वै॒त्। अमि॑नती। दैव्या॑नि। व्र॒तानि॑। सूर्य॑स्य। चे॒ति॒। र॒श्मिऽभिः॑। दृ॒शा॒ना ॥ १.९२.१२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:92» मन्त्र:12 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:26» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:12


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसी है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि (न) जैसे (पशून्) गाय आदि पशुओं को पाकर वैश्य बढ़ता और (न) जैसे (सुभगा) सुन्दर ऐश्वर्य्य करनेहारी (प्रथाना) तरङ्गों से शब्द करती हुई (सिन्धुः) अति वेगवती नदी (क्षोदः) जल को पाकर बढ़ती है, वैसे सुन्दर ऐश्वर्य्य करानेहारी प्रातःसमय चूँ-चाँ करनेहारे पखेरुओं के शब्दों से शब्दवाली और कोसों फैलती हुई (चित्रा) चित्र-विचित्र प्रातःसमय की वेला (उर्विया) पृथिवी के साथ (सूर्यस्य) मार्त्तण्डमण्डल की (रश्मिभिः) किरणों से (दृशाना) जो देखी जाती है, वह (अमिनती) सब प्रकार से रक्षा करती हुई (दैव्यानि) विद्वानों में प्रसिद्ध (व्रतानि) सत्यपालन आदि कामों को (व्यश्वैत्) व्याप्त हो अर्थात् जिसमें विद्वान् जन नियमों को पालते हैं, वैसे प्रितिदिन अपने नियमों को पालती हुई (चेति) जानी जाती है, उस प्रातःसमय की वेला की विद्या के अनुसार वर्त्ताव रखकर निरन्तर सुखी हों ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पशुओं की प्राप्ति के विना वैश्यलोग वा जल की प्राप्ति के विना नदी-नद आदि अति उत्तम सुख करनेवाले नहीं होते, वैसे प्रातःसमय की वेला के गुण जतानेवाली विद्या और पुरुषार्थ के विना मनुष्य प्रशंसित ऐश्वर्य्यवाले नहीं होते, ऐसा जानना चाहिये ॥ १२ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

मनुष्यैर्या पशून्नेव यथा पशून्प्राप्य वणिग्जनः सुभगा प्रथाना सिन्धुः क्षोदो नेव वा चित्रोषा उर्विया पृथिव्या सह सूर्यस्य रश्मिभिर्दृशानाऽमिनती रक्षां कुर्वती सती दैव्यानि व्रतानि व्यश्वैच्चेति संज्ञायते तद्विद्यानुसारवर्त्तमानेन सततं सुखयितव्यम् ॥ १२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पशून्) गवादीन् (न) इव (चित्रा) विचित्रस्वरूपोषाः। चित्रेत्युषर्नामसु पठितम्। निघं० १। ८। (सुभगा) सौभाग्यकारिणी (प्रथाना) प्रथते तरङ्गैः शब्दायमाना। उषःपक्षे पक्षिशब्दैः शब्दायमाना (सिन्धुः) विस्तीर्णा नदी (न) इव (क्षोदः) अगाधजलम् (उर्विया)। अत्र टास्थाने डियाजादेशः। (वि) (अश्वैत्) व्याप्नोति (अमिनती) अहिंसन्ती (दैव्यानि) देवेषु विद्वत्सु जातानि (व्रतानि) सत्यपालनादीनि कर्माणि (सूर्यस्य) मार्तण्डस्य (चेति) संज्ञायते। अत्र चितीधातोर्लुङ्यडभावश्चिण् च। (रश्मिभिः) किरणैः (दृशाना) दृश्यमाना। अत्र कर्मणि लटः शानच् बहुलं छन्दसीति विकरणस्य लुक् च ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा पशूनां प्राप्त्या विना वणिग्जनो, जलस्य प्राप्त्या विना नद्यादिः सौभाग्यकारको न भवति तथोषर्विद्यया पुरुषार्थेन च विना मनुष्याः प्रशस्तैश्वर्य्या न भवन्तीति वेद्यम् ॥ १२ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे पशूंच्या प्राप्तीशिवाय वैश्य लोक व जलाच्या प्राप्तीशिवाय नद्या नद इत्यादी अतिउत्तम सुख देणारे नसतात, तसे प्रातःकाळच्या वेळेचे गुण दाखविणारी विद्या व पुरुषार्थ याखेरीज माणसे प्रशंसनीय, ऐश्वर्यवान होत नाहीत हे जाणले पाहिजे. ॥ १२ ॥