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ए॒ता उ॒ त्या उ॒षस॑: के॒तुम॑क्रत॒ पूर्वे॒ अर्धे॒ रज॑सो भा॒नुम॑ञ्जते। नि॒ष्कृ॒ण्वा॒ना आयु॑धानीव धृ॒ष्णव॒: प्रति॒ गावोऽरु॑षीर्यन्ति मा॒तर॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

etā u tyā uṣasaḥ ketum akrata pūrve ardhe rajaso bhānum añjate | niṣkṛṇvānā āyudhānīva dhṛṣṇavaḥ prati gāvo ruṣīr yanti mātaraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒ताः। ऊँ॒ इति॑। त्याः। उ॒षसः॑। के॒तुम्। अ॒क्र॒त॒। पूर्वे॑। अर्धे॑। रज॑सः। भा॒नुम्। अ॒ञ्ज॒ते॒। निः॒ऽकृ॒ण्वा॒नाः। आयु॑धानिऽइव। धृ॒ष्णवः॑। प्रति॑। गावः॑। अरु॑षीः। य॒न्ति॒। मा॒तरः॑ ॥ १.९२.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:92» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अठारह ऋचावाले बानवें सूक्त का प्रारम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र से उषस शब्द के अर्थसंबन्धी कामों का उपदेश किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम जो (एताः) देखे जाते (उ) और जो (त्याः) देखे नहीं जाते अर्थात् दूर देश में वर्त्तमान हैं वे (उषसः) प्रातःकाल के सूर्य्य के प्रकाश (केतुम्) सब पदार्थों के ज्ञान को (अक्रत) कराते हैं, जो (रजसः) भूगोल के (पूर्व) आधे भाग में (भानुम्) सूर्य के प्रकाश को (अञ्जते) पहुँचाती और (निष्कृण्वानाः) दिन-रात को सिद्ध करती हैं, वे (आयुधानीव) जैसे वीरों को युद्धविद्या से छोड़े हुए बाण आदि शस्त्र सूधे-तिरछे जाते-आते हैं वैसे (धृष्णवः) प्रगल्भता के गुणों को देने (अरुषीः) लालगुणयुक्त और (मातरः) माता के तुल्य सब प्राणियों का मान करनेवाली (प्रतिगावः) उस सूर्य के प्रकाश के प्रत्यागमन अर्थात् क्रम से घटने-बढ़ने से जगह-जगह में (यन्ति) घटती-बढ़ती से पहुँचती हैं, उनको तुम लोग जानो ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस सृष्टि में सदैव सूर्य का प्रकाश भूगोल के आधे भाग को प्रकाशित करता है और आधे भाग में अन्धकार रहता है। सूर्य के प्रकाश के विना किसी पदार्थ का विशेष ज्ञान नहीं होता। सूर्य की किरणें क्षण-क्षण भूगोल आदि लोकों के घूमने से गमन करती सी दीख पड़ती हैं। जो प्रातःकाल के रक्त प्रकाश अपने-अपने देश में हैं, वे प्रत्यक्ष और दूसरे देश में हैं, वे अप्रत्यक्ष। ये सब प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रातःकाल की वेला सब लोकों में एकसी सब दिशाओं में प्रवेश करती हैं। जैसे शस्त्र आगे-पीछे जाने से सीधी-उलटी चाल को प्राप्त होते हैं, वैसे अनेक प्रकार के प्रातःप्रकाश भूगोल आदि लोकों की चाल से सीधी-तिरछी चालों से युक्त होते हैं, यह बात मनुष्यों को जाननी चाहिये ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथोषसः संबन्ध्यर्थकृत्यान्युपदिश्यन्ते ।

अन्वय:

हे मनुष्या यूयं ता एता उ त्या उषसः केतुमक्रत या रजसः पूर्वेऽर्धे भानुमञ्जते निष्कृण्वानाऽऽयुधानीव धृष्णवोऽरुषीर्मातरः प्रति गावो यन्ति ताः सम्यग् विजानीत ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एताः) प्रत्यक्षाः (उ) वितर्के (त्याः) दूरलोकस्था अप्रत्यक्षाः (उषसः) प्रातःकालस्था प्रकाशाः (केतुम्) विज्ञानम् (अक्रत) कारयन्ति। अत्र णिलोपः। (पूर्वे) पुरोदेशं (अर्धे) (रजसः) भूगोलस्य (भानुम्) सूर्यदीप्तिम् (अञ्जते) प्रापयन्ति (निष्कृण्वानाः) दिनानि निष्पादयन्त्यः (आयुधानीव) यथा वीरैर्युद्धविद्यया प्रक्षिप्तानि शस्त्राणि गच्छन्त्यागच्छन्ति तथा (धृष्णवः) प्रगल्भगुणप्रदाः (प्रति) क्रमार्थे (गावः) गमनशीलाः (अरुषीः) अरुष्यो रक्तगुणविशिष्टाः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (मातरः) मातृवत्सर्वेषां प्राणिनां मान्यकारिण्यः ॥ १ ॥ एतास्ता उषसः केतुमकृषत प्रज्ञानमेकस्या एव पूजनार्थे बहुवचनं स्यात् पूर्वेऽर्धेऽन्तरिक्षलोकस्य समञ्जते भानुना निष्कृण्वाना आयुधानीव धृष्णवः। निरित्येष समित्ये तस्य एमीदेषां निष्कृतं जारिणी वेत्यपि निगमो भवति प्रतियन्ति गावो गमनादरुषीरारोचनान्मातरो भासो निर्मात्र्यः। निरु० १२। ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इह सृष्टौ सर्वदा सूर्यप्रकाशो भूगोलार्धं प्रकाशयति भूगोलार्द्धे च तमस्तिष्ठति। सूर्यप्रकाशमन्तरेण कस्यचिद्वस्तुनो ज्ञानविशेषो नैव जायते। सूर्यकिरणाः प्रतिक्षणं भूगोलानां भ्रमणेन गच्छन्तीव दृश्यन्ते योषाः स्वस्वलोकस्था सा प्रत्यक्षा या दूरलोकस्था साऽप्रत्यक्षा। इमाः सर्वाः सर्वेषु लोकेषु सदृशगुणाः सर्वासु दिक्षु प्रविष्टाः सन्ति। यथाऽऽयुधान्यऽभिमुखदेशाभिगमनेन लोमप्रतिलोमगतीर्गच्छन्ति तथैवोषसोऽनेकविधानामन्येषां लोकानां गतियोगाल्लोमप्रतिलोमगतयो गच्छन्तीति मनुष्यैर्वेद्यम् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात उषा व अश्वि या पदार्थांच्या गुणांचे वर्णन पूर्वसूक्ताच्या अर्थाबरोबर या सूक्तार्थाची संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - या सृष्टीत सदैव सूर्याचा प्रकाश भूगोलाच्या अर्ध्या भागाला प्रकाशित करतो व अर्ध्या भागावर अंधार असतो. सूर्यप्रकाशाशिवाय कोणत्याही पदार्थाचे विशेष ज्ञान होत नाही. भूगोल इत्यादी फिरत असल्यामुळे सूर्याची किरणे क्षणोक्षणी गमन करीत आहेत असे वाटते. जो प्रातःकाळचा लाल प्रकाश आपल्या देशात दिसतो, तो प्रत्यक्ष व दुसऱ्या देशात असतो तो अप्रत्यक्ष होय. ही प्रातःकाळची वेळ सर्व गोलात एकसारखी सर्व दिशांमध्ये प्रवेश करते. जशी शस्त्रे पुढे-मागे जाण्याने सरळ व तिरपी जातात तसे अनेक प्रकारचे प्रातःप्रकाश भूगोल इत्यादीच्या फिरण्याने सरळ व तिरपे पडतात. या गोष्टी माणसांनी जाणल्या पाहिजेत. ॥ १ ॥