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राज्ञो॒ नु ते॒ वरु॑णस्य व्र॒तानि॑ बृ॒हद्ग॑भी॒रं तव॑ सोम॒ धाम॑। शुचि॒ष्ट्वम॑सि प्रि॒यो न मि॒त्रो द॒क्षाय्यो॑ अर्य॒मेवा॑सि सोम ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

rājño nu te varuṇasya vratāni bṛhad gabhīraṁ tava soma dhāma | śuciṣ ṭvam asi priyo na mitro dakṣāyyo aryamevāsi soma ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

राज्ञः॑। नु। ते॒। वरु॑णस्य। व्र॒तानि॑। बृ॒हत्। ग॒भी॒रम्। तव॑। सो॒म॒। धाम॑। शुचिः॑। त्वम्। अ॒सि॒। प्रि॒यः। न। मि॒त्रः। द॒क्षाय्यः॑। अ॒र्य॒माऽइ॑व। अ॒सि॒। सो॒म॒ ॥ १.९१.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:91» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:19» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे दोनों कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) महाऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर वा विद्वान् ! जिससे (त्वम्) आप (प्रियः) प्रसन्न (मित्रः) मित्र के (न) तुल्य (शुचिः) पवित्र और पवित्रता करनेवाले (असि) हैं तथा (अर्यमेव) यथार्थ न्याय करनेवाले के समान (दक्षाय्यः) विज्ञान करनेवाले (असि) हैं। हे (सोम) शुभकर्म और गुणों में प्रेरणेवाले (वरुणस्य) श्रेष्ठ (राज्ञः) सब जगत् के स्वामी वा विद्याप्रकाशयुक्त ! (ते) आपके (व्रतानि) सत्यप्रकाश करनेवाले काम हैं, जिससे (तव) आपका (बृहत्) बड़ा (गभीरम्) अत्यन्त गुणों से अथाह (धाम) जिसमें पदार्थ धरे जायें, वह स्थान है, इससे आप (नु) शीघ्र और सदा उपासना और सेवा करने योग्य हैं ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। मनुष्य जैसे-जैसे इस सृष्टि में सृष्टि की रचना के नियमों से ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभावों को देख के अच्छे यत्न को करें, वैसे-वैसे विद्या और सुख उत्पन्न होते हैं ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे सोम यतस्त्वं प्रियो मित्रो नेव शुचिरसि। अर्यमेव दक्षाय्योऽसि। हे सोम यतो वरुणस्य राज्ञस्ते ! तव व्रतानि सत्यप्रकाशकानि कर्माणि सन्ति यतस्तव बृहद्गभीरं धामास्ति तस्माद्भवान् नु सर्वदोपास्यः सेवनीयो वास्ति ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (राज्ञः) सर्वस्य जगतोऽधिपतेर्विद्याप्रकाशवतो वा (नु) सद्यः (ते) तव (वरुणस्य) वरस्य (व्रतानि) सत्यपालनादीनि कर्माणि (बृहत्) महत् (गभीरम्) महोत्तमगुणागाधम् (तव) (सोम) महैश्वर्ययुक्त (धाम) धीयन्ते पदार्था यस्मिंस्तत् (शुचिः) पवित्रः पवित्रकारको वा (त्वम्) (असि) भवसि (प्रियः) प्रीतः (न) इव (मित्रः) सुहृत् (दक्षाय्यः) विज्ञानकारकः (अर्यमेव) यथार्थन्यायकारीव (असि) भवसि (सोम) शुभकर्मगुणेषु प्रेरक ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषापमालङ्कारौ। मनुष्या यथा यथाऽस्यां सृष्टौ रचनानियमैरीश्वरस्य गुणकर्मस्वभावांश्च दृष्ट्वा प्रयत्नान् कुर्वीरन् तथा तथा विद्यासुखं जायत इति वेद्यम् ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. माणसे जसजशी या सृष्टीत सृष्टिरचनेच्या नियमाद्वारे ईश्वराचे गुण कर्म स्वभाव जाणून चांगला प्रयत्न करतात तसतसे विद्या व सुख उत्पन्न होते. ॥ ३ ॥