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आ प्या॑यस्व॒ समे॑तु ते वि॒श्वत॑: सोम॒ वृष्ण्य॑म्। भवा॒ वाज॑स्य संग॒थे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā pyāyasva sam etu te viśvataḥ soma vṛṣṇyam | bhavā vājasya saṁgathe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। प्या॒य॒स्व॒। सम्। ए॒तु॒। ते॒। वि॒श्वतः॑। सो॒म॒। वृष्ण्य॑म्। भव॑। वाज॑स्य। स॒म्ऽग॒थे ॥ १.९१.१६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:91» मन्त्र:16 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:22» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) अत्यन्त पराक्रमयुक्त वैद्यकशास्त्र को जाननेहारे विद्वान् ! (ते) आपका (विश्वतः) संपूर्ण सृष्टि से (वृष्ण्यम्) वीर्य्यवानों में उत्पन्न पराक्रम है, वह हम लोगों को (सम् एतु) अच्छी प्रकार प्राप्त हो तथा आप (आप्यायस्व) उन्नति को प्राप्त और (वाजस्य) वेगवाली सेना के (संगथे) संग्राम में रोगनाशक (भव) हूजिये ॥ १६ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि विद्वान् और औषधिगणों का सेवनकर, बल और विद्या को प्राप्त हो, समस्त सृष्टि की अत्युत्तम विद्याओं को उन्नति कर, शत्रुओं को जीत और सज्जनों की रक्षाकर, शरीर और आत्मा की पुष्टि निरन्तर बढ़ावें ॥ १६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।।।

अन्वय:

हे सोम विद्वन् ! वैद्यकवित्ते विश्वतो वृष्ण्यमस्मान् समेत त्वमाप्यायस्व वाजस्य संगथे रोगापहा भव ॥ १६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) अभितः (प्यायस्व) वर्धस्व (सम्) (एतु) प्राप्नोतु (ते) तव (विश्वतः) सर्वस्याः सृष्टेः सकाशात् (सोम) वीर्य्यवत्तम (वृष्ण्यम्) वृषसु वीर्य्यवत्सु भवम्। वृषन्शब्दाद्भवे छन्दसीति यत्। वाछन्दसीति प्रकृतिभावनिषेधः पक्षेऽल्लोपः। (भव) द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वाजस्य) वेगयुक्तस्य सैन्यस्य (संगथे) संग्रामे। संगथ इति संग्रामना०। निघं० २। ७। ॥ १६ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्विद्वदोषधिगणान् संसेव्य बलविद्ये प्राप्य सर्वस्याः सृष्टेरनुत्तमा विद्या उन्नीय शत्रून्विजित्य सज्जनान् संरक्ष्य शरीरात्मपुष्टिः सततं वर्धनीया ॥ १६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी विद्वानांचे ग्रहण करावे व औषधांचे सेवन करावे. बल व विद्या प्राप्त करावी. संपूर्ण सृष्टीची अत्युत्तम विद्या प्राप्त करून उन्नती करावी. शत्रूंना जिंकून सज्जनांचे रक्षण करावे. शरीर व आत्म्याची निरंतर पुष्टी करावी. ॥ १६ ॥