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शं नो॑ मि॒त्रः शं वरु॑णः॒ शं नो॑ भवत्वर्य॒मा। शं न॒ इन्द्रो॒ बृह॒स्पतिः॒ शं नो॒ विष्णु॑रुरुक्र॒मः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śaṁ no mitraḥ śaṁ varuṇaḥ śaṁ no bhavatv aryamā | śaṁ na indro bṛhaspatiḥ śaṁ no viṣṇur urukramaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शम्। नः॒। मि॒त्रः। शम्। वरु॑णः॒। शम्। नः॒। भ॒व॒तु॒। अ॒र्य॒मा। शम्। नः॒। इन्द्रः॑। बृह॒स्पतिः॑। शम्। नः॒। विष्णुः॑। उ॒रु॒ऽक्र॒मः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:90» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:18» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ईश्वर और विद्वान् लोग मनुष्यों के लिये क्या-क्या करते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हमारे लिये (उरुक्रमः) जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (मित्रः) सबका सुख करनेवाला, (नः) हम लोगों के लिये (शम्) सुखकारी, वा जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (वरुणः) सबमें अति उन्नतिवाला, हम लोगों के लिये (शम्) शान्ति सुख का देनेवाला, वा जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (अर्य्यमा) न्याय करनेवाला, (नः) हम लोगों के लिये (शम्) आरोग्य सुख का देनेवाला, जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (बृहस्पतिः) महत् वेदविद्या का पालनेवाला, वा जिसके बहुत पराक्रम हैं वह (इन्द्रः) परमैश्वर्य देनेवाला, (नः) हम लोगों के लिये (शम्) ऐश्वर्य सुखकारी, वा जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (विष्णुः) सब गुणों में व्याप्त होनेवाला परमेश्वर तथा उक्त गुणोंवाला विद्वान् सज्जन पुरुष (नः) हम लोगों के लिये पूर्वोक्त सुख और (शम्) विद्या में सुख देनेवाला (भवतु) हो ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर के समान मित्र, उत्तम न्याय का करनेवाला, ऐश्वर्य्यवान्, बड़े-बड़े पदार्थों का स्वामी तथा व्यापक सुख देनेवाला और विद्वान् के समान प्रेम उत्पादन करने, धार्मिक सत्य व्यवहार वर्त्तने, विद्या आदि धनों को देने और विद्या पालनेवाला शुभ गुण और सत्कर्मों में व्याप्त महापराक्रमी कोई नहीं हो सकता। इससे सब मनुष्यों को चाहिये कि परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, निरन्तर विद्वानों की सेवा और संग करके नित्य आनन्द में रहें ॥ ९ ॥ इस सूक्त में पढ़ने-पढ़ानेवालों के और ईश्वर के कर्त्तव्य काम तथा उनके फल का कहना है, इससे इस सूक्त के अर्थ के साथ पिछले सूक्त के अर्थ की संगति जाननी चाहिये ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरीश्वरो विद्वांसश्च मनुष्येभ्यः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथाऽस्मदर्थमुरुक्रमो मित्रो नः शमुरुक्रमो वरुणो नः शमुरुक्रमोऽर्यमा नः शमुरुक्रमो बृहस्पतिरिन्द्रो नः शमुरुक्रमो विष्णुर्नः शं च भवतु तथा युष्मदर्थमपि भवतु ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शम्) सुखकारी (नः) अस्मभ्यम् (मित्रः) सर्वसुखकारी (शम्) शान्तिप्रदः (वरुणः) सर्वोत्कृष्टः (शम्) आरोग्यसुखदः (नः) अस्मभ्यम् (भवतु) (अर्यमा) न्यायव्यवस्थाकारी (शम्) ऐश्वर्यसौख्यप्रदः (नः) अस्मदर्थम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यप्रदः (बृहस्पतिः) बृहत्यो वाचो विद्यायाः पतिः पालकः (शम्) विद्याव्याप्तिप्रदः (नः) अस्मभ्यम् (विष्णुः) सर्वगुणेषु व्यापनशीलः (उरुक्रमः) बहवः क्रमाः पराक्रमा यस्य सः ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - नहि परमेश्वरेण समः कश्चित्सखा श्रेष्ठो न्यायकार्यैश्वर्यवान् बृहत्स्वामी व्यापकः सुखकारी च विद्यते। नहि च विदुषा तुल्यः प्रियकारी धार्मिकः सत्यकारी विद्यादिधनप्रदो विद्यापालकः शुभगुणकर्मसु व्याप्तिमान् महापराक्रमी च भवितुं शक्यः। तत्स्मात्सर्वैर्मनुष्यैरीश्वरस्य स्तुतिप्रार्थनोपासना विदुषां सेवासङ्गौ च सततं कृत्वा नित्यमानन्दयितव्यमिति ॥ ९ ॥ अत्राऽध्यापकाऽध्येतॄणामीश्वरस्य च कर्त्तव्यफलस्योक्तत्वादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - परमेश्वराप्रमाणे मित्र, उत्तम न्यायकर्ता, ऐश्वर्यवान मोठमोठ्या पदार्थांचा स्वामी व व्यापक सुख देणारा आणि विद्वानाप्रमाणे प्रेम उत्पन्न करणारा, धार्मिक सत्य व्यवहाराने वागणारा, विद्या इत्यादी धन देणारा आणि विद्येचे पालन करणारा, शुभ गुण व सत्कर्मामध्ये व्याप्त, महापराक्रमी कोणी असू शकत नाही. त्यासाठी सर्व माणसांनी परमेश्वराची स्तुती, प्रार्थना, उपासना, सतत विद्वानांची सेवा व संगती करून सदैव आनंदात राहावे. ॥ ९ ॥