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इन्द्रेहि॒ मत्स्यन्ध॑सो॒ विश्वे॑भिः सोम॒पर्व॑भिः। म॒हाँ अ॑भि॒ष्टिरोज॑सा॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrehi matsy andhaso viśvebhiḥ somaparvabhiḥ | mahām̐ abhiṣṭir ojasā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑। आ। इ॒हि॒। मत्सि॑। अन्ध॑सः। विश्वे॑भिः। सो॒म॒पर्व॑ऽभिः। म॒हान्। अ॒भि॒ष्टिः। ओज॑सा॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:9» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब नवम सूक्त के आरम्भ के मन्त्र में इन्द्र शब्द से परमेश्वर और सूर्य्य का प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जिस प्रकार से (अभिष्टिः) प्रकाशमान (महान्) पृथिवी आदि से बहुत बड़ा (इन्द्र) यह सूर्य्यलोक है, वह (ओजसा) बल वा (विश्वेभिः) सब (सोमपर्वभिः) पदार्थों के अङ्गों के साथ (अन्धसः) पृथिवी आदि अन्नादि पदार्थों के प्रकाश से (एहि) प्राप्त होता और (मत्सि) प्राणियों को आनन्द देता है, वैसे ही हे (इन्द्र) सर्वव्यापक ईश्वर ! आप (महान्) उत्तमों में उत्तम (अभिष्टिः) सर्वज्ञ और सब ज्ञान के देनेवाले (ओजसा) बल वा (विश्वेभिः सोमपर्वभिः) सब पदार्थों के अंशों के साथ वर्त्तमान होकर (एहि) प्राप्त होते और (अन्धसः) भूमि आदि अन्नादि उत्तम पदार्थों को देकर हमको (मत्सि) सुख देते हो॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और लुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे ईश्वर इस संसार के परमाणु-परमाणु में व्याप्त होकर सब की रक्षा निरन्तर करता है, वैसे ही सूर्य्य भी सब लोकों से बड़ा होने से अपने सन्मुख हुए पदार्थों को आकर्षण वा प्रकाश करके अच्छे प्रकार स्थापन करता है॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तत्रेन्द्रशब्देनोभावर्थावुपदिश्येते।

अन्वय:

यथाऽयमिन्द्रः सूर्य्यलोक ओजसा महानभिष्टिर्विश्वेभिः सोमपर्वभिः सहान्धसोऽन्नानां पृथिव्यादीनां प्रकाशेनेहि मत्सि हर्षहेतुर्भवति, तथैव हे इन्द्र त्वं महानभिष्टिर्विश्वेभिः सोमपर्वभिः सह वर्त्तमानः सन् ओजसोऽन्धस एहि प्रापयसि मत्सि हर्षयितासि॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) सर्वव्यापकेश्वर सूर्य्यलोको वा (आ) क्रियार्थे (इहि) प्राप्नुहि प्रापयति वा। अत्र पुरुषव्यत्ययः लडर्थे लोट् च। (मत्सि) हर्षयितासि भवति वा। अत्र बहुलं छन्दसीति श्यनो लुक्, पक्षे पुरुषव्यत्ययश्च। (अन्धसः) अन्नानि पृथिव्यादीनि। अन्ध इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (विश्वेभिः) सर्वैः। अत्र बहुलं छन्दसीति भिस ऐसादेशाभावः। (सोमपर्वभिः) सोमानां पदार्थानां पर्वाण्यवयवास्तैः सह (महान्) सर्वोत्कृष्ट ईश्वरः सूर्य्यलोको वा परिमाणेन महत्तमः (अभिष्टिः) अभितः सर्वतो ज्ञाता ज्ञापयिता मूर्त्तद्रव्यप्रकाशको वा। अत्राभिपूर्वादिष गतावित्यस्माद्धातोर्मन्त्रे वृषेष० (अष्टा०३.३.९६) अनेन क्तिन्। एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वक्तव्यम्। एङि पररूपमित्यस्योपरिस्थवार्त्तिकेनाभेरिकारस्य पररूपेणेदं सिध्यति। (ओजसा) बलेन। ओज इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९)॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषलुप्तोमापलङ्कारौ। यथेश्वरोऽस्मिन् जगति प्रतिपरमाण्वभिव्याप्य सततं सर्वान् लोकान् नियतान् रक्षति, तथा सूर्य्योऽपि सर्वेभ्यो लोकेभ्यो महत्त्वादाभिमुख्यस्थान् पदार्थानाकृष्य प्रकाश्य व्यवस्थापयति॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात इन्द्र शब्दाच्या अर्थाचे वर्णन, उत्तम उत्तम धनप्राप्तीसाठी ईश्वराची प्रार्थना व पुरुषार्थ करण्याच्या आज्ञेचे प्रतिपादन केल्यामुळे या नवव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती आठव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर आहे असे समजले पाहिजे. या सूक्ताचाही अर्थ सायणाचार्य इत्यादी आर्यावर्तवासी व विल्सन इत्यादी इंग्रजांनी सर्वस्वी मंत्राच्या विरुद्ध वर्णिलेला आहे.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व लुप्तोपमालंकार आहेत. जसा ईश्वर या जगातील परमाणूंमध्ये व्याप्त असून सतत सर्वांचे रक्षण करतो, तसेच सर्व गोलांमध्ये मोठा व मुख्य असल्यामुळे सूर्य आपल्या आकर्षणाने व प्रकाशाने चांगल्या प्रकारे नियमन करतो. ॥ १ ॥