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तमीशा॑नं॒ जग॑तस्त॒स्थुष॒स्पतिं॑ धियंजि॒न्वमव॑से हूमहे व॒यम्। पू॒षा नो॒ यथा॒ वेद॑सा॒मस॑द्वृ॒धे र॑क्षि॒ता पा॒युरद॑ब्धः स्व॒स्तये॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam īśānaṁ jagatas tasthuṣas patiṁ dhiyaṁjinvam avase hūmahe vayam | pūṣā no yathā vedasām asad vṛdhe rakṣitā pāyur adabdhaḥ svastaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। ईशा॑नम्। जग॑तः। त॒स्थुषः॑। पति॑म्। धि॒य॒म्ऽजि॒न्वम्। अव॑से। हू॒म॒हे॒। व॒यम्। पू॒षा। नः॒। यथा॑। वेद॑साम्। अस॑त्। वृ॒धे। र॒क्षि॒ता। पा॒युः। अद॑ब्धः। स्व॒स्तये॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:89» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:15» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को सर्वविद्या के प्रकाश करनेवाले जगदीश्वर की आश्रयता, स्तुति, प्रार्थना और उपासना करके सब विद्या की सिद्धि के लिये अत्यन्त पुरुषार्थ करना चाहिये, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! (यथा) जैसे (पूषा) पुष्टि करनेवाला परमेश्वर (नः) हम लोगों के (वेदसाम्) विद्या आदि धनों की (वृधे) वृद्धि के लिये (रक्षिता) रक्षा करनेवाला (स्वस्तये) सुख के लिये (अदब्धः) अहिंसक अर्थात् जो हिंसा में प्राप्त न हुआ हो (पूषा) सब प्रकार की पुष्टि का दाता और (पायुः) सब प्रकार से पालना करनेवाला (असत्) होवे वैसे तू हो जैसे (वयम्) हम (अवसे) रक्षा के लिये (तम्) उस सृष्टि का प्रकाश करने (जगतः) जङ्गम और (तस्थुषः) स्थावरमात्र जगत् के (पतिम्) पालनेहारे (धियम्) समस्त पदार्थों का चिन्तनकर्त्ता (जिन्वम्) सुखों से तृप्त करने (ईशानम्) समस्त सृष्टि की विद्या के विधान करनेहारे ईश्वर को (हूमहे) आह्वान करते हैं, वैसे तू भी कर ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि वैसा अपना व्यवहार करें कि जैसा ईश्वर के उपदेश के अनुकूल हो और जैसे ईश्वर सबका अधिपति है, वैसे मनुष्यों को भी सदा उत्तम विद्या और शुभ गुणों की प्राप्ति और अच्छे पुरुषार्थ से सब पर स्वामिपन सिद्ध करना चाहिये। और जैसे ईश्वर विज्ञान से पुरुषार्थयुक्त, सब सुखों को देने, संसार की उन्नति और सब की रक्षा करनेवाला सब के सुख के लिये प्रवृत्त हो रहा है, वैसे ही मनुष्यों को भी होना चाहिये ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः सर्वविद्याप्रकाशकं जगदीश्वरमाश्रित्य स्तुत्वा प्रार्थयित्वोपास्य सर्वविद्यासिद्धये परमपुरुषार्थः कार्य्य इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यथा पूषा नोऽस्माकं वेदसां वृधे यो रक्षिता स्वस्तयेऽदब्धः पूषा पायुरसत्तथा त्वं भव यथा वयमवसे तं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियं जिन्वमीशानं परमात्मानं हूमहे तथैतं त्वमप्याह्वय ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) सृष्टिविद्याप्रकाशकम् (ईशानम्) सर्वस्याः सृष्टेर्विधातारम् (जगतः) जङ्गमस्य (तस्थुषः) स्थावरस्य (पतिम्) पालकम् (धियम्) समस्तपदार्थचिन्तकम् (जिन्वम्) सर्वैः सुखैस्तर्प्पकम् (अवसे) रक्षणाय (हूमहे) स्पर्धामहे (वयम्) (पूषा) पुष्टिकर्त्ता परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (यथा) (वेदसाम्) विद्यादिधनानाम्। वेद इति धननाम। (निघं०२.१०) (असत्) भवेत् (वृधे) वृद्धये (रक्षिता) (पायुः) पालनकर्त्ता (अदब्धः) अहिंसिता (स्वस्तये) सुखाय ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैस्तथाऽनुष्ठातव्यं यथेश्वरोपदेशानुकूल्यं स्यात्। यथेश्वरः सर्वस्याऽधिपतिस्तथा मनुष्यैरपि सर्वोत्तमविद्याशुभगुणप्राप्त्या सुपुरुषार्थेन सर्वाऽधिपत्यं साधनीयम्। यथेश्वरो विज्ञानमयः पुरुषार्थमयः सर्वसुखप्रदो जगद्वर्धकः सर्वाभिरक्षकः सर्वेषां सुखाय प्रवर्त्तते, तथैव मनुष्यैरपि भवितव्यम् ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी असा व्यवहार करावा की जो ईश्वराच्या उपदेशानुकूल असेल व जसा ईश्वर सर्वांचा अधिपती आहे तसे माणसांनी सदैव उत्तम विद्या व शुभ गुणांची प्राप्ती व उत्तम पुरुषार्थ करून सर्वांवर स्वामित्व सिद्ध करावे व जसा ईश्वर विज्ञानाने पुरुषार्थयुक्त असून सर्व सुख देणारा, जगाचा विकास करणारा, सर्वरक्षक असून सर्वांच्या सुखासाठी प्रवृत्त होतो तसे सर्व माणसांनीही बनले पाहिजे. ॥ ५ ॥