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श्रि॒यसे॒ कं भा॒नुभिः॒ सं मि॑मिक्षिरे॒ ते र॒श्मिभि॒स्त ऋक्व॑भिः सुखा॒दयः॑। ते वाशी॑मन्त इ॒ष्मिणो॒ अभी॑रवो वि॒द्रे प्रि॒यस्य॒ मारु॑तस्य॒ धाम्नः॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śriyase kam bhānubhiḥ sam mimikṣire te raśmibhis ta ṛkvabhiḥ sukhādayaḥ | te vāśīmanta iṣmiṇo abhīravo vidre priyasya mārutasya dhāmnaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श्रि॒यसे॑। कम्। भा॒नुऽभिः॑। सम्। मि॒मि॒क्षि॒रे॒। ते। र॒श्मिऽभिः॑। ते। ऋक्व॑ऽभिः। सु॒ऽखा॒दयः॑। ते। वाशी॑ऽमन्तः। इ॒ष्मिणः॑। अभी॑रवः। वि॒द्रे। प्रि॒यस्य॑। मारु॑तस्य। धाम्नः॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:87» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:13» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (भानुभिः) दिन-दिन से (कम्) सुख को (श्रियसे) सेवन करने के लिये (ते) वे (प्रियस्य) प्रेम उत्पन्न करानेवाले (मारुतस्य) कला के पवन वा प्राणवायु के (धाम्नः) घर से विद्या वा जल को (सम्+मिमिक्षिरे) अच्छे प्रकार छिड़कना चाहते हैं (ते) वे शिल्पविद्या के जाननेवाले होते हैं तथा जो (रश्मिभिः) अग्निकिरणों से सुख के सेवन के लिये कलाओं से यानों को चलाते हैं, वे शीघ्र एक स्थान से दूसरे स्थान का (विद्रे) लाभ पाते हैं (ऋक्वभिः) जिनमें प्रशंसनीय स्तुति विद्यमान है, उनसे जो सुख के सेवन करने के लिये (सुखादयः) अच्छे-अच्छे पदार्थों के भोजन करनेवाले होते हैं (ते) वे आरोग्यपन को पाते हैं (वाशीमन्तः) प्रशंसित जिनकी वाणी वा (इष्मिणः) विशेष ज्ञान है वे (अभीरवः) निर्भय पुरुष प्रेम उत्पन्न करानेहारे प्राणवायु वा कलाओं के पवन के घर से युद्ध में प्रवृत्त होते हैं, वे विजय को प्राप्त होते हैं ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य प्रतिदिन सृष्टिपदार्थविद्या को पा अनेक उपकारों को ग्रहण कर उस विद्या के पढ़ने और पढ़ाने से वाचाल अर्थात् बातचीत में कुशल हो और शत्रुओं को जीतकर अच्छे आचरण में वर्त्तमान होते हैं, वे ही सब कभी सुखी होते हैं ॥ ६ ॥ इस सूक्त में राजा प्रजाओं के कर्त्तव्य कहे हैं, इस कारण इस सूक्त के अर्थ से पिछले सूक्त के अर्थ की संगति है, यह जानना चाहिये ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

ये भानुभिः कं श्रियसे प्रियस्य मारुतस्य धाम्नो विद्यां जलं वा संमिमिक्षिरे ते शिल्पविद्याविदो भवन्ति। ये रश्मिभिरग्निकिरणैः कं श्रियसे कलाभिर्यानानि चालयन्ति ते शीघ्रं स्थानान्तरप्राप्तिं विद्रे लभन्ते। ऋक्वभिर्ये कं श्रियसे सुखादयो भवन्ति, ते आरोग्यं लभन्ते। ये वाशीमन्त इष्मिणोऽभीरवः प्रियस्य मारुतस्य धाम्नो युद्धे प्रवर्त्तन्ते ते विद्रे विजयं लभन्ते ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (श्रियसे) श्रयितुम् (कम्) सुखम् (भानुभिः) दिवसैः (सम्) सम्यक् (मिमिक्षिरे) मेढुमिच्छन्ति (ते) (रश्मिभिः) अग्निकिरणैः (ते) (ऋक्वभिः) प्रशस्ता ऋचः स्तुतयो विद्यन्ते येषु कर्मसु तैः (सुखादयः) सुष्ठु खादयो भोजनादीनि येषां ते (ते) (वाशीमन्तः) प्रशस्ता वाशी वाग् विद्यते येषां ते (इष्मिणः) प्रशस्तविज्ञानगतिमन्तः (अभीरवः) भयरहिताः (विद्रे) विन्दन्ति लभन्ते। छन्दसि वा द्वे भवतः। (अष्टा०वा०६.१.८) अनेन वार्त्तिकेन द्विर्वचनाभावः। (प्रियस्य) प्रसन्नकारकस्य (मारुतस्य) कलायन्त्रवायोः प्राणस्य वा (धाम्नः) गृहात् ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः प्रतिदिनं सृष्टिपदार्थविद्यां लब्ध्वाऽनेकोपकारान् गृहीत्वा तद्विद्याध्ययनाऽध्यापनैर्वाग्मिनो भूत्वा शत्रून् शुद्धाचारे वर्त्तन्ते त एव सर्वदा सुखिनो भवन्तीति ॥ ६ ॥ अत्र राजप्रजापुरुषाणां कर्त्तव्यानि कर्माण्युक्तान्यत एतत्सूक्तार्थेन सह पूर्वसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे दररोज सृष्टीतील पदार्थविद्या प्राप्त करून उपकार ग्रहण करतात ती विद्येचे अध्ययन-अध्यापन करून वाक्चतुर होतात व शत्रूंना जिंकतात. चांगले वर्तन ठेवतात. ती सदैव सुखी होतात. ॥ ६ ॥