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पि॒तुः प्र॒त्नस्य॒ जन्म॑ना वदामसि॒ सोम॑स्य जि॒ह्वा प्र जि॑गाति॒ चक्ष॑सा। यदी॒मिन्द्रं॒ शम्यृक्वा॑ण॒ आश॒तादिन्नामा॑नि य॒ज्ञिया॑नि दधिरे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pituḥ pratnasya janmanā vadāmasi somasya jihvā pra jigāti cakṣasā | yad īm indraṁ śamy ṛkvāṇa āśatād in nāmāni yajñiyāni dadhire ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पि॒तुः। प्र॒त्नस्य॑। जन्म॑ना। व॒दा॒म॒सि॒। सोम॑स्य। जि॒ह्वा। प्र। जि॒गा॒ति॒। चक्ष॑सा। यत्। ई॒म्। इन्द्र॑म्। शमि॑। ऋक्वा॑णः। आश॑त। आत्। इत्। नामा॑नि। य॒ज्ञिया॑नि। द॒धि॒रे॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:87» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋक्वाणः) प्रशंसित स्तुतियोंवाले हम लोग (प्रत्नस्य) पुरातन अनादि (पितुः) पालनेहारे जगदीश्वर की व्यवस्था से अपने कर्म्म के अनुसार पाये हुए मनुष्य देह के (जन्मना) जन्म से (सोमस्य) प्रकट संसार के (चक्षसा) दर्शन से जिन (यज्ञियानि) शिल्प आदि कर्मों के योग्य (नामानि) जलों को (वदामसि) तुम्हारे प्रति उपदेश करें वा (यत्) जो (ईम्) प्राप्त होने योग्य (इन्द्रम्) बिजुली अग्नि के तेज को (शमि) कर्म के निमित्त (जिह्वा) जीभ वा वाणी (प्रजिगाति) स्तुति करती है, उन सब को तुम लोग (आशत) प्राप्त होओ और (आत+इत्) उसी समय इनको (दधिरे) सब लोग धारण करो ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि इस मनुष्यदेह को पाकर पितृभाव से परमेश्वर की आज्ञापालन रूप प्रार्थना, उपासना और परमेश्वर का उपदेश, संसार के पदार्थ और उनके विशेष ज्ञान से उपकारों को लेकर अपने जन्म को सफल करें ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

ऋक्वाणो वयं प्रत्नस्य पितुर्जगदीश्वरस्य व्यवस्थया कर्माऽनुसारतः प्राप्तेन मनुष्यदेहधारणाख्येन जन्मना सोमस्य चक्षसा यानि यज्ञियानि नामानि च प्रवदामसि भवतः प्रत्युपदिशामो वा यदीमिन्द्रं जिह्वा प्रजिगाति तानि यूयमाऽऽशत प्राप्नुतादिद् दधिर एवं धरन्तु ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पितुः) पालकस्य जनकस्य (प्रत्नस्य) पुरातनस्याऽनादेः (जन्मना) शरीरेण संयुक्ताः (वदामसि) वदामः (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतः (जिह्वा) रसनेन्द्रियं वाग्वा (प्र) (जिगाति) प्रशंसति (चक्षसा) दर्शनेन वा (यत्) यानि (ईम्) प्राप्तव्यम् (इन्द्रम्) विद्युदाख्यमग्निम् (शमि) कर्मणि। शमीति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (ऋक्वाणः) प्रशस्ता ऋचः स्तुतयो विद्यन्ते येषां ते (आशत) प्राप्नुत (आत्) अनन्तरे (इत्) एव (नामानि) जलानि (यज्ञियानि) शिल्पादियज्ञार्हाणि (दधिरे) धरन्तु ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरिमं देहमाश्रित्य पितृभावेन परमेश्वरस्याज्ञापालनरूपप्रार्थनां कृत्वोपास्योपदिश्य जगत्पदार्थगुणविज्ञानोपकारान् सङ्गृह्य जन्मसाफल्यं कार्य्यम् ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी मनुष्य देह प्राप्त करून पितृभावाने परमेश्वराच्या आज्ञापालनरूपी प्रार्थना, उपासना व परमेश्वराचा उपदेश, जगातील पदार्थ व त्यांचे विशेष ज्ञान हा उपकार समजून आपल्या जन्माचे सार्थक करावे. ॥ ५ ॥