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अत्राह॒ गोर॑मन्वत॒ नाम॒ त्वष्टु॑रपी॒च्य॑म्। इ॒त्था च॒न्द्रम॑सो गृ॒हे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

atrāha gor amanvata nāma tvaṣṭur apīcyam | itthā candramaso gṛhe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अत्र॑। अह॑। गोः। अ॒म॒न्व॒त॒। नाम॑। त्वष्टुः॑। अ॒पी॒च्य॑म्। इ॒त्था। च॒न्द्रम॑सः। गृ॒हे ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:84» मन्त्र:15 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:7» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा का सूर्य के समान करने योग्य कर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे (अत्र) इस जगत् में (नाम) प्रसिद्ध (गौः) पृथिवी और (चन्द्रमसः) चन्द्रलोक के मध्य में (त्वष्टुः) छेदन करनेहारे सूर्य का (अपीच्यम्) प्राप्त होनेवालों में योग्य प्रकाशरूप व्यवहार है (इत्था) इस प्रकार (अमन्वत) मानते हैं, वैसे (अह) निश्चय से जाके (गृहे) घरों में न्यायप्रकाशार्थ वर्त्तो ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जानना चाहिये कि ईश्वर की विद्यावृद्धि की हानि और विपरीतता नहीं हो सकती। सब काल सब क्रियाओं में एकरस सृष्टि के नियम होते हैं। जैसे सूर्य का पृथिवी के साथ आकर्षण और प्रकाश आदि सम्बन्ध हैं, वैसे ही अन्य भूगोलों के साथ हैं। क्योंकि ईश्वर से स्थिर किये नियम का व्यभिचार अर्थात् भूल कभी नहीं होती ॥ १५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राज्ञः सूर्यवत्कृत्यमुपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे राजादयो मनुष्या ! यूयं यथाऽत्र नाम गोश्चन्द्रमसस्त्वष्टुरपीच्यमस्तीत्थामन्वत तथाऽह न्यायप्रकाशाय प्रजागृहे वर्त्तध्वम् ॥ १५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अत्र) अस्मिञ्जगति (अह) विनिग्रहे (गोः) पृथिव्याः (अमन्वत) मन्यन्ते (नाम) प्रसिद्धं रचनं नामकरणं वा (त्वष्टुः) मूर्तद्रव्यछेदकस्य (अपीच्यम्) येऽप्यञ्चन्ति प्राप्नुवन्ति तेषु साधुम् (इत्था) अनेन हेतुना (चन्द्रमसः) चन्द्रलोकादेः (गृहे) स्थाने ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्ज्ञातव्यमीश्वरविद्यावृद्ध्योर्हानिर्विपरीतता भवितुं न शक्या, सर्वेषु कालेषु सर्वासु क्रियास्वेकरससृष्टिनियमा भवन्ति। यथा सूर्यस्य पृथिव्या सहाकर्षणप्रकाशादिसम्बन्धाः सन्ति, तथैवान्यभूगोलैः सह सन्ति। कुत ईश्वरेण संस्थापितस्य नियमस्य व्यभिचारो न भवति ॥ १५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की ईश्वरीय विद्यावृद्धीमध्ये नुकसान किंवा विपरीतता असू शकत नाही. सर्व काळी सर्व क्रियेत सृष्टीचे नियम एकसारखे असतात. जसा सूर्याचा पृथ्वीबरोबर आकर्षण व प्रकाश इत्यादी संबंध असतो तसाच इतर भूगोलाबरोबर ही असतो. कारण ईश्वराच्या स्थिर नियमांचे उल्लंघन होऊ शकत नाही किंवा कधी चूक होऊ शकत नाही. ॥ १५ ॥