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स्वा॒दोरि॒त्था वि॑षू॒वतो॒ मध्वः॑ पिबन्ति गौ॒र्यः॑। या इन्द्रे॑ण स॒याव॑री॒र्वृष्णा॒ मद॑न्ति शो॒भसे॒ वस्वी॒रनु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svādor itthā viṣūvato madhvaḥ pibanti gauryaḥ | yā indreṇa sayāvarīr vṛṣṇā madanti śobhase vasvīr anu svarājyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्वा॒दोः। इ॒त्था। वि॒षु॒ऽवतः॑। मध्वः॑। पि॒ब॒न्ति॒। गौ॒र्यः॑। याः। इन्द्रे॑ण। स॒ऽयाव॑रीः। वृष्णा॑। मद॑न्ति। शो॒भसे॑। वस्वीः॑। अनु॑। स्व॒ऽराज्य॑म् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:84» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:6» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (वृष्णा) सुख के वर्षाने (इन्द्रेण) सूर्य के साथ (सयावरीः) तुल्य गमन करनेवाली (वस्वीः) पृथिवी आदि से सम्बन्ध करनेवाली (गौर्यः) किरणों से (स्वराज्यम्) अपने प्रकाशरूप राज्य के (शोभसे) शोभा के लिये (अनुमदन्ति) हर्ष का हेतु होती हैं, वे (इत्था) इस प्रकार से (स्वादोः) स्वादयुक्त (विषुवतः) व्याप्तिवाले (मध्वः) आदि गुण को (पिबन्ति) पीती हैं, वैसे तुम भी वर्त्ता करो ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अपनी सेना के पति और वीरपुरुषों की सेना के विना निज राज्य की शोभा तथा रक्षा नहीं हो सकती। जैसे सूर्य की किरण सूर्य के विना स्थित और वायु के विना जल का आकर्षण करके वर्षाने के लिये समर्थ नहीं हो सकती, वैसे सेनाध्यक्ष और राजा के विना प्रजा आनन्द करने को समर्थ नहीं हो सकती ॥ १० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृशः स्यादित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! वृष्णेन्द्रेण सयावरीर्वस्वीगौर्यः किरणाः स्वराज्यं शोभसेऽनुमदन्ती इत्था स्वादोर्विषुवतो मध्वः पिबन्तीव त्वमपि वर्त्तस्व ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वादोः) स्वादयुक्तस्य (इत्था) अनेन हेतुना (विषुवतः) प्रशस्ता विषुर्व्याप्तिर्यस्य तस्य (मध्वः) मधुरादिगुणयुक्तस्य (पिबन्ति) (गौर्यः) शुभ्रा किरणा इव उद्यमयुक्ताः सेनाः (याः) (इन्द्रेण) सूर्य्येण सह वर्त्तमानाः (सयावरीः) याः समानं यान्ति ताः (वृष्णा) बलिष्ठेन (मदन्ति) हर्षन्ति (शोभसे) शोभितुम् (वस्वीः) पृथिव्यादिसंबन्धिनीः (अनु) आनुकूल्ये (स्वराज्यम्) स्वकीयराष्ट्रम् ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि स्वसेनापतिभिर्वीरसेनाभिश्च विना स्वराज्यस्य शोभारक्षणे भवितुं शक्ये इति। यथा सूर्यस्य किरणाः सूर्येण विना स्थातुं वायुना जलाकर्षणं कृत्वा वर्षितुं च नु शक्नुवन्ति तथा सेनापतिना राज्ञा चान्तरेण प्रजाश्चानन्दितुं न शक्नुवन्ति ॥ १० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. आपले सेनापती व वीर पुरुषांच्या सेनेशिवाय आपल्या राज्याची शोभा वाढू शकत नाही व रक्षणही होऊ शकत नाही. जशी सूर्याची किरणे सूर्याशिवाय स्थित होऊ शकत नाहीत व वायूशिवाय जलाचे आकर्षण करून वृष्टी करण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत. तसेच सेनाध्यक्षाशिवाय व राजाशिवाय प्रजा आनंदाने राहण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. ॥ १० ॥