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ब॒र्हिर्वा॒ यत्स्व॑प॒त्याय॑ वृ॒ज्यते॒ऽर्को वा॒ श्लोक॑मा॒घोष॑ते दि॒वि। ग्रावा॒ यत्र॒ वद॑ति का॒रुरु॒क्थ्य१॒॑स्तस्येदिन्द्रो॑ अभिपि॒त्वेषु॑ रण्यति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

barhir vā yat svapatyāya vṛjyate rko vā ślokam āghoṣate divi | grāvā yatra vadati kārur ukthyas tasyed indro abhipitveṣu raṇyati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ब॒र्हिः। वा॒। यत्। सु॒ऽअ॒प॒त्याय॑। वृ॒ज्यते॑। अ॒र्कः। वा॒। श्लोक॑म्। आ॒ऽघोष॑ते। दि॒वि। ग्रावा॑। यत्र॑। वद॑ति। का॒रुः। उ॒क्थ्यः॑। तस्य॑। इत्। इन्द्रः॑। अ॒भि॒ऽपि॒त्वेषु॑। र॒ण्य॒ति॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:83» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:4» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह किस प्रकार से क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्र) जिस (दिवि) प्रकाशयुक्त व्यवहार में (उक्थ्यः) कथनीय व्यवहारों में निपुण प्रशंसनीय शिल्प कामों का कर्त्ता (इन्द्रः) परमैश्वर्य को प्राप्त करनेहारा विद्वान् (अभिपित्वेषु) प्राप्त होने योग्य व्यवहारों में (यत्) जिस (स्वपत्याय) सुन्दर सन्तान के अर्थ (बर्हिः) विज्ञान को (वृज्यते) छोड़ता है (अर्कः) पूजनीय विद्वान् (श्लोकम्) सत्यवाणी को (वा) विचारपूर्वक (आघोषते) सब प्रकार सुनाता है (ग्रावा) मेघ के समान गम्भीरता से (वदति) बोलता है (वा) अथवा (रण्यति) उत्तम उपदेशों को करता है, वहाँ (तस्येत्) उसी सन्तान को विद्या प्राप्त होती है ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोगों को योग्य है कि जैसे जल छिन्न-भिन्न होकर आकाश में जा वहाँ से वर्षा से सुख करता है, वैसे कुव्यसनों को छिन्न-भिन्न कर विद्या को ग्रहण करके सब मनुष्यों को सुखी करें। जैसे सूर्य अन्धकार का नाश और प्रकाश करके सब प्राणियों को सुखी और दुष्ट चोरों को दुःखी करता है, वैसे मनुष्यों के अज्ञान का नाश विज्ञान की प्राप्ति करा के सबको सुखी करें। जैसे मेघ गर्जना कर और वर्ष के दुर्भिक्ष को छुड़ा सुभिक्ष करता है, वैसे ही सत्योपदेश की वृष्टि से अधर्म का नाश धर्म के प्रकाश से सब मनुष्यों को आनन्दित किया करें ॥ ६ ॥ इस सूक्त में सेनापति और उपदेशक के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कथं कि कुर्यादित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

यत्र दिव्युक्थ्यः कारुरिन्द्रोऽभिपित्वेषु यद्यस्मै स्वपत्याय बर्हिर्वृज्यतेऽर्को वा श्लोकमाघोषते ग्रावा वदति रण्यति तत्र तस्येदेव विद्या जायते ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (बर्हिः) विज्ञानम् (वा) समुच्चयार्थे। अथापि समुच्चयार्थे। (निरु०१.४) (यत्) यस्मै। अत्र सुपां सुलुगिति ङेर्लुक्। (स्वपत्याय) शोभनान्यपत्यानि यस्य तस्मै (वृज्यते) त्यज्यते (अर्कः) विद्यमानः सूर्यः (वा) विचारणे। (निरु०१.४) (श्लोकम्) विद्यासहितां वाचम् (आघोषते) विद्याप्राप्तय उच्चरति (दिवि) आकाश इव दिव्ये विद्याव्यवहारे (ग्रावा) मेघः। ग्रावेति मेघनाम। (निघं०१.१०) (यत्र) यस्मिन्देशे (वदति) उपदिशति (कारुः) स्तुत्यानां शिल्पकर्मणां कर्त्ता। कारुरहमस्मि स्तोमानां कर्त्ता। (निरु०६.६) (उक्थ्यः) उक्थेषु वक्तव्येषु व्यवहारेषु साधु (तस्य) (इत्) एव (इन्द्रः) परमैश्वर्यप्रदो विद्वान् (अभिपित्वेषु) अभितः सर्वतः प्राप्तव्येषु व्यवहारेषु। अत्र पदधातोर्बाहुलकादौणादिक इत्वन् प्रत्ययो डिच्च। (रण्यति) उपदिशति। अत्र विकरणव्यत्ययः ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिर्यथा जलं विच्छिद्यान्तरिक्षं गत्वा वर्षित्वा सुखं जनयति तथैव कुव्यसनानि छित्त्वा विद्यामुपगृह्य सर्वे जनाः सुखयितव्याः। यथा सूर्योऽन्धकारं विनाश्य प्रकाशं जनयित्वा सर्वान् प्राणिनः सुखयति दुष्टान् भीषयते, तथैव जनानामज्ञानं विनाश्य ज्ञानं जनयित्वा सदैव सुखं सम्पादनीयम्। यथा मेघो गर्जित्वा वर्षित्वा दौर्भिक्ष्यं विनाश्य सौभिक्ष्यं करोति तथैव सदुपदेशवृष्ट्याऽधर्मं विनाश्य धर्मं प्रकाश्य जनाः सर्वदाऽऽनन्दयितव्याः ॥ ६ ॥ अत्र सेनापत्युपदेशकयोः कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे जल नष्टभ्रष्ट होऊन आकाशात जाऊन तेथून वृष्टी करून सुखी करते तसे विद्वान लोकांनी कुव्यसनांना नष्टभ्रष्ट करून विद्या ग्रहण करून सर्व माणसांना सुखी करावे. जसा सूर्य अंधकाराचा नाश करून प्रकाशाद्वारे सर्व माणसांना सुखी करतो व दुष्ट चोरांना दुःखी करतो. तसे माणसांच्या अज्ञानाचा नाश व विज्ञानाची प्राप्ती करवून सर्वांना सुखी करावे. जसा मेघ गर्जना करून वृष्टीद्वारे दुर्भिक्ष दूर करून सुभिक्ष करतो तसे सत्योपदेशाच्या वृष्टीने अधर्माचा नाश व धर्माचा प्रकाश करून सर्व माणसांना आनंदित करावे. ॥ ६ ॥