वांछित मन्त्र चुनें

आ प॑प्रौ॒ पार्थि॑वं॒ रजो॑ बद्ब॒धे रो॑च॒ना दि॒वि। न त्वावाँ॑ इन्द्र॒ कश्च॒न न जा॒तो न ज॑निष्य॒तेऽति॒ विश्वं॑ ववक्षिथ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā paprau pārthivaṁ rajo badbadhe rocanā divi | na tvāvām̐ indra kaś cana na jāto na janiṣyate ti viśvaṁ vavakṣitha ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। प॒प्रौ॒। पार्थि॑वम्। रजः॑। ब॒द्ब॒धे। रो॒च॒ना। दि॒वि। न। त्वाऽवा॑न्। इ॒न्द्र॒। कः। च॒न। न। जा॒तः। न। ज॒नि॒ष्य॒ते॒। अति॑। विश्व॑म्। व॒व॒क्षि॒थ॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:81» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:5


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त ईश्वर ! जिससे (कश्चन) कोई भी (त्वावान्) तेरे सदृश (न जातः) न हुआ (न जनिष्यते) न होगा और तू (विश्वम्) जगत् को (ववक्षिथ) यथायोग्य नियम में प्राप्त करता है और जो (पार्थिवम्) पृथिवी और आकाश में वर्त्तमान (रजः) परमाणु और लोक में (आ पप्रौ) सब ओर से व्याप्त हो रहा है (दिवि) प्रकाशरूप सूर्यादि जगत् में (रोचना) प्रकाशमान भूगोलों को (अति बद्बधे) एक-दूसरे वस्तु के आकर्षण से बद्ध करता है, वह सबका उपास्य देव है ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोग जिसने सब जगत् को रचके व्याप्त कर रक्षित किया है, जो जन्म और उपमा से रहित, जिसके तुल्य कुछ भी वस्तु नहीं है, तो उस परमेश्वर से अधिक कुछ कैसे होवे ! इसकी उपासना को छोड़के अन्य किसी पृथक् वस्तु का ग्रहण वा गणना मत करो ॥ ५ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यतः कश्चन त्वावान्न जातो न जनिष्यतेऽतस्त्वं विश्वं सर्वं जगद्ववक्षिथ यो भवान् पार्थिवं विश्वं रज आ पप्रौ दिवि रोचनाऽतिबद्बधेऽतः स त्वमुपास्योऽसि ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (पप्रौ) प्रपूर्त्ति (पार्थिवम्) पृथिवीमयं पृथिव्यामन्तरिक्षे विदितं वा (रजः) परमाण्वादिकं वस्तु लोकसमूहं वा (बद्बधे) बीभत्सते (रोचना) सूर्यादिदीप्तिः (दिवि) प्रकाशे (न) निषेधे (त्वावान्) त्वया सदृशः (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त परमात्मन् (कः) (चन) अपि (न) (जातः) उत्पन्नः (न) (जनिष्यते) उत्पत्स्यते (अति) अतिशये (विश्वम्) सर्वम् (ववक्षिथ) वक्षसि ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यूयं येन सर्वं जगद्रचयित्वा व्याप्य रक्ष्यते योऽजन्माऽनुपमः येन तुल्यं किंचिदपि वस्तु नास्ति कुतश्चातोऽधिकं किंचिदपि भवेत् तमेव सततमुपासीध्वम्। एतस्मात्पृथग्वस्तु नैव ग्राह्यं गणनीयं च ॥ ५ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! ज्याने सर्व जगाची निर्मिती केलेली आहे व त्यात व्याप्त असून त्याचे रक्षण केलेले आहे. जो अजन्म व अनुपम आहे. ज्याची कुणाबरोबरच तुलना होऊ शकत नाही. त्या परमेश्वरापेक्षा अधिक काय असू शकेल? त्याची उपासना सोडून इतर कोणत्याही दुसऱ्या वस्तूचे ग्रहण करू नये व गणना करू नये. ॥ ५ ॥