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अधि॒ सानौ॒ नि जि॑घ्नते॒ वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा। म॒न्दा॒न इन्द्रो॒ अन्ध॑सः॒ सखि॑भ्यो गा॒तुमि॑च्छ॒त्यर्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhi sānau ni jighnate vajreṇa śataparvaṇā | mandāna indro andhasaḥ sakhibhyo gātum icchaty arcann anu svarājyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अधि॑। सानौ॑। नि। जि॒घ्न॒ते॒। वज्रे॑ण। श॒तऽप॑र्वणा। म॒न्दा॒नः। इन्द्रः॑। अन्ध॑सः। सखि॑ऽभ्यः। गा॒तुम्। इ॒च्छ॒ति॒। अर्च॑न्। अनु॑। स्व॒ऽराज्य॑म् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:80» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:30» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसके करने योग्य कर्मों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जैसे (इन्द्रः) विद्युत् अग्नि (शतपर्वणा) असंख्यात अच्छे-अच्छे कर्मों से युक्त (वज्रेण) अपने किरणों से मेघ के (सानावधि) अवयवों पर प्रहार करता हुआ (निजिघ्नते) प्रकाश को रोकनेवाले मेघ के लिये सदैव प्रतिकूल रहता है, वैसे ही जो आप (गातुम्) उत्तम रीति से शिक्षायुक्त वाणी की (इच्छति) इच्छा करते हैं सो (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (मन्दानः) आनन्द बढ़ाते हुए और (स्वराज्यम्) अपने राज्य का (अन्वर्चन्) सत्कार करते हुए (अन्धसः) अन्न के दाता हों ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और लुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सब जगत् का उपकार करनेवाला सूर्य्य है, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि को भी होना चाहिये ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तस्य कर्त्तव्यानि कर्माण्युपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यथेन्द्रो विद्युच्छतपर्वणा वज्रेण वृत्रस्य सानावधि प्रहरन्तीव प्रकाशं निजिघ्नते मेघाय प्रतिकूलो वर्त्तते तथैव गातुमिच्छति स भवान् सखिभ्यो मन्दानः स्वराज्यमन्वर्चन्नन्धसो दाता भव ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अधि) उपरिभावे (सानौ) अवयवे (नि) नितराम् (जिघ्नते) हन्त्रे (वज्रेण) (शतपर्वणा) शतान्यसंख्यातानि पर्वाण्यलं कर्माणि वा यस्मात्तेन (मन्दानः) कामयमानो हर्षयन् वा (इन्द्रः) दाता (अन्धसः) अन्नस्य (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः (गातुम्) सुशिक्षितां वाणीम् (इच्छति) काङ्क्षति (अर्चन्) (अनु) (स्वराज्यम्) ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सर्वजगदुपकारी सूर्य्योऽस्ति, तथैव सभाद्यध्यक्षादयः सततं स्युः ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व लुप्तोपमालंकार आहेत. जसे सर्व जगावर उपकार करणारा सूर्य आहे तसेच सभाध्यक्ष इत्यादींनीही असावे. ॥ ६ ॥