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इ॒त्था हि सोम॒ इन्मदे॑ ब्र॒ह्मा च॒कार॒ वर्ध॑नम्। शवि॑ष्ठ वज्रि॒न्नोज॑सा पृथि॒व्या निः श॑शा॒ अहि॒मर्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

itthā hi soma in made brahmā cakāra vardhanam | śaviṣṭha vajrinn ojasā pṛthivyā niḥ śaśā ahim arcann anu svarājyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒त्था। हि। सोमे॑। इत्। मदे॑। ब्र॒ह्मा। च॒कार॑। वर्ध॑नम्। शवि॑ष्ठ। व॒ज्रि॒न् ओज॑सा। पृ॒थि॒व्याः। निः। श॒शाः॒। अहि॑म्। अर्च॑न्। अनु॑। स्व॒ऽराज्य॑म् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:80» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:29» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ८० वें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में सभापति आदि का वर्णन किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शविष्ठ) बलयुक्त (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रविद्या से सम्पन्न सभापति ! जैसे सूर्य (अहिम्) मेघ को जैसे (ब्रह्मा) चारों वेद के जाननेवाला (ओजसा) अपने पराक्रम से (पृथिव्याः) विस्तृत भूमि के मध्य (मदे) आनन्द और (सोमे) ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेवाले में (स्वराज्यम्) अपने राज्य की (अन्वर्चन्) अनुकूलता से सत्कार करता हुआ (इत्था) इस हेतु से (वर्धनम्) बढ़ती को (चकार) करे, वैसे ही तू सब अन्यायाचरणों को (इत्) (हि) ही (निश्शशाः) दूर कर दे ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि चक्रवर्त्तिराज्य की सामग्री इकट्ठी कर और उसकी रक्षा करके विद्या और सुख की निरन्तर वृद्धि करें ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सभाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे शविष्ठ वज्रिन् ! यथा सूर्योऽहिं यथा ब्रह्मोजसा पृथिव्या मदे सोमे स्वराज्यमन्वर्चन्नित्था वर्धनं चकार तथा हि त्वं सर्वानन्यायाचारान्निः शशाः ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इत्था) अनेन हेतुना (हि) खलु (सोमे) ऐश्वर्यप्रापके (इत्) अपि (मदे) आनन्दकारके (ब्रह्मा) चतुर्वेदवित् (चकार) कुर्यात् (वर्धनम्) येन वर्धन्ति तत् (शविष्ठ) अतिशयेन बलवान् (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रविद्यासम्पन्न (ओजसा) पराक्रमेण (पृथिव्याः) विस्तृताया भूमेः (निः) नितराम् (शशाः) उत्प्लवस्व (अहिम्) सूर्यो मेघमिव (अर्चन्) पूजयन् (अनु) पश्चात् (स्वराज्यम्) स्वस्य राज्यम् ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्याश्चक्रवर्त्तिराज्यकरणस्य सामग्रीं विधाय पालनं कृत्वा विद्यासुखोन्नतिं कुर्युः ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात सभाध्यक्ष, सूर्य, विद्वान व ईश्वर यांचे वर्णन करण्याने पूर्व सूक्ताबरोबर या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - माणसांनी चक्रवर्ती राज्याची सामग्री एकत्र करून व त्याचे रक्षण करून विद्या व सुखाची निरंतर वृद्धी करावी. ॥ १ ॥