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स॒मो॒हे वा॒ य आश॑त॒ नर॑स्तो॒कस्य॒ सनि॑तौ। विप्रा॑सो वा धिया॒यवः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samohe vā ya āśata naras tokasya sanitau | viprāso vā dhiyāyavaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒म्ऽओ॒हे। वा॒। ये। आश॑त। नरः॑। तो॒कस्य॑। सनि॑तौ। विप्रा॑सः। वा॒। धि॒या॒ऽयवः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:8» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को कैसे होकर युद्ध करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (विप्रासः) जो अत्यन्त बुद्धिमान् (नरः) मनुष्य हैं, वे (समोहे) संग्राम के निमित्त शत्रुओं को जीतने के लिये (आशत) तत्पर हों, (वा) अथवा (धियायवः) जो कि विज्ञान देने की इच्छा करनेवाले हैं, वे (तोकस्य) सन्तानों के (सनितौ) विद्या की शिक्षा में (आशत) उद्योग करते रहें ॥६॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि-इस संसार में मनुष्यों को दो प्रकार का काम करना चाहिये। इनमें से जो विद्वान् हैं, वे अपने शरीर और सेना का बल बढ़ाते और दूसरे उत्तम विद्या की वृद्धि करके शत्रुओं के बल का सदैव तिरस्कार करते रहें। मनुष्यों को जब-जब शत्रुओं के साथ युद्ध करने की इच्छा हो, तब-तब सावधान होके प्रथम उनकी सेना आदि पदार्थों से कम से कम अपना दोगुना बल करके उनके पराजय से प्रजा की रक्षा करनी चाहिये। तथा जो विद्याओं के पढ़ाने की इच्छा करनेवाले हैं, वे शिक्षा देने योग्य पुत्र वा कन्याओं को यथायोग्य विद्वान् करने में अच्छे प्रकार यत्न करें, जिससे शत्रुओं के पराजय और अज्ञान के विनाश से चक्रवर्त्ति राज्य और विद्या की वृद्धि सदैव बनी रहे ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः कीदृशा भूत्वा युद्धं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।

अन्वय:

ये विप्रासो नरस्ते समोहे शत्रूनाशत वा ये धियायवस्ते तोकस्य सनितावाशत ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (समोहे) संग्रामे। समोहे इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (वा) पक्षान्तरे (ये) योद्धारो युद्धम् (आशत) व्याप्तवन्तो भवेयुः। ‘अशूङ् व्याप्तौ’ इत्यस्माल्लिङर्थे लुङ्प्रयोगः। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति च्लेरभावः। (नरः) मनुष्याः (तोकस्य) संतानस्य (सनितौ) भोगसंविभागलाभे। तितुत्र० (अष्टा०७.२.९) आग्रहादीनामिति वक्तव्यमिति वार्त्तिकेनेडागमः। (विप्रासः) मेधाविनः। विप्र इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) आज्जसेरसुक्। (अष्टा०७.१.५०) अनेन जसोऽसुगागमः। (वा) व्यवहारान्तरे (धियायवः) ये धियं विज्ञानमिच्छन्तः, धीयते धार्य्यते श्रुतमनया सा धिया, तामात्मन इच्छन्ति ते, ‘धि धारणे’ इत्यस्य कप्रत्ययान्तः प्रयोगः ॥६॥
भावार्थभाषाः - इन्द्रेश्वरः सर्वान्मनुष्यानाज्ञापयति-संसारेऽस्मिन्मनुष्यैः कार्य्यद्वयं कर्त्तव्यम्। ये विद्वांसस्तैर्विद्याशरीरबले सम्पाद्यैताभ्यां शत्रूणां बलान्यभिव्याप्य सदैव तिरस्कर्त्तव्यानि। मनुष्यैर्यदा यदा शत्रुभिः सह युयुत्सा भवेत्तदा तदा सावधानतया शत्रूणां बलान्न्यूनान्न्यूनं द्विगुणं स्वबलं सम्पाद्यैव तेषां कृतेनापराजयेन प्रजाः सततः रक्षणीयाः। ये च विद्यादानं चिकीर्षवस्ते कन्यानां पुत्राणां च विद्याशिक्षाकरणे प्रयतेरन्। यतः शत्रूणां पराभवेन सुराज्यविद्यावृद्धी सदैव भवेताम् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वर सर्व माणसांना आज्ञा करतो की - या जगात माणसांनी दोन प्रकारचे काम केले पाहिजे. जे विद्वान आहेत, त्यांनी शरीर व सेनेचे बल वाढवावे आणि इतरांनी उत्तम विद्येची वृद्धी करून शत्रूंच्या बलाला तिरस्कृत करून न्यून करावे. माणसांना जेव्हा जेव्हा शत्रूबरोबर युद्ध करण्याची इच्छाच असेल तेव्हा तेव्हा सावधान होऊन त्यांच्या सेनेपेक्षा आपले बल दुप्पट वाढवावे व त्यांचा पराभव करून प्रजेचे रक्षण करावे. विद्या शिकविण्याची इच्छा असणाऱ्यांनी शिक्षण देण्यायोग्य पुत्र किंवा कन्यांना प्रयत्नपूर्वक योग्य विद्वान करावे, ज्यामुळे शत्रूंचा पराजय व अज्ञानाचा नाश होऊन सुराज्य व सदैव विद्येची वृद्धी होईल. ॥ ६ ॥